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________________ भगवतीस्त्र अधःसप्तम्यां वा भवन्ति७, ' अहवा एगे रयणप्पभाए नव सकरप्पभाए होज्जा, अथवा एको नैरंथिको रत्नप्रभायां भवति, 'नव शर्करामभायां भवन्ति, 'एवं दुया संजोगो जाव सत्तगसंजोगो य जहा नवण्हं ' एवं पूर्वक्तिरीत्या द्विकसंयोगो यावत् त्रिकसंयोगः, चतुष्कसंयोगः, पञ्चकसंयोगः, पटकसंयोगः, सप्तकसंयोगश्च यथा नवानां नैरयिकाणां भणितस्तथैव दशानामपि नैरयिकाणा भणितव्यः, 'नवरं एक्ककको अभहिओ संचारेयवो सेसं तं चेव ' नवरं नव. नरयिकापेक्षया दश नैरयिकाणां विशेपस्तु एकैकोऽभ्यधिकः संचारयिव्यः, शेप तदेव पूक्तिवदेव बोध्यम् । तेषां च सपा मध्यमानामालापकानामाकारान् सूचयितुमन्तिममालाहोते हैं, पंकप्रभापृथिवी में भी होते हैं, धूमप्रभापृथिवी में भी होते हैं, तमः प्रभा पृथिवी में भी होते हैं और अधः सप्तमी पृथिवी में भी होते हैं। इस प्रकार से ये ७ विकल्प दश नैरधिकों के एक संयोग. में कहे गये हैं। (एवं दुया संजोगो जाव सत्तगसंजोगो य जहा नवग्रहं ) जैसा नौ नैरयिकों का पूर्वोत्तरीति के अनुसार विकसंयोग यावत-त्रिक संयोग, चतुष्कसंयोग, पंचक संयोग, षट्कसंयोग और सप्तक संयोग कहा गया है उसी-रीति के अनुसार दश नैरयिकों का भी द्विकादिसं. योग कहना चाहिये परन्तु, नौ नैरयिकों की अपेक्षा से दश नैरयिकों के द्विकादिसंयोग में यदि - कोई विशेषता है तो वह- एक एक नारक के अधिक संचार करने की है बाकी का और सब कथन पहिले जैसा किया गया है-वैसा ही जानना चाहिये । उन सब के मध्यम आलापकों को सूचित करने के लिये अन्तिम आलापक को सूत्रकार कहते हैं-(अपથાય છે, વાલુકાપ્રશામાં પણ ઉત્પન્ન થાય છે, પકપ્રભામાં પણ ઉત્પન્ન થાય છે, ધૂમપ્રભામાં પણ ઉત્પન્ન થાય છે, તમપ્રભામાં પણ ઉત્પન થાય છે અને નીચે સાતમી પૃથ્વીમાં પણ ઉત્પન્ન થાય છે. આ રીતે ૧૦ નારકના એકसयाजी. ७ मन छे." एव दुया संजोगो जाव सत्त संजोगो य जहा नवण्ह ॥ २२ नव नाना विसया, सियाग, श्यतु ४सयोग, यय: સંયોગ, ષટકલગ અને સમકસ ગ પહેલાના પ્રકરણમાં કહેવામાં આવ્યું छ, मेवा ॥ ४२१. नाना पy द्विसिय ४ो नये, ५२न्तु, न નારકના ક્રિકાદિ સર્ગ કરતા દશ નારકેના દ્રિકાદિ સંગમાં એટલી જ વિશેષતા છે કે દેશ નારકના- દ્રિકાદિ સાગમાં એક એક અધિક નારકને સંચાર કરવા જોઈએ... બાકીનુ સમસ્ત કથા" નવ નારકોના પૂર્વોકતાકથન - પ્રમાણે સમજવું આ બાંધના મધ્યમઆલાપકોને સૂચિત કરવાને માટે સૂત્ર २ सीथी 'an An५४२५४८.४२ -"-अपच्छिमआलाषगो-अहवा
SR No.009318
Book TitleBhagwati Sutra Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size40 MB
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