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________________ प्रवद्रिका टी० श०८० १० सू०८ जीवादीनां पुद्गलपुद्गलिविचारः ५७६ इत्यपि व्यपदिश्यते । गौतमः पृच्छति - नेरइए णं नंते । किं पोग्गली पुग्गले ? ? हे भदन्त | नैरयिकः खलु किं 'पुद्गली' किंवा ' पुद्गलः ' इति व्यपदिश्यते ? भगवानाह - ' एवं चेव, एवं जाव वैमाणिए, नवरं जस्स जर इंदियाई, तस्स तइ भाई' हे गौतम! एवमेव उक्तयुक्त्या समुच्चयजीववदेव नैरयिकोऽपि नैरयिकपञ्चेन्द्रियाद्यपेक्षया 'पुद्गली' व्यपदिश्यते, स्वापेक्षया च ' पुद्गलः ' इति व्यपदिशते, एवं यावत् पृथिवीकायिकाद्ये केन्द्रिय विकलेन्द्रिय पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिक - मनुष्य भवनपति वानव्यन्तर- ज्योतिपिक मानिकान्तो जीवः इन्द्रियाद्यपेक्षया पुद्गली, स्वापेक्षया च पुद्गल इति व्यपदिश्यते, नवरं विशेषस्तु यस्य जीवस्य यावन्ति इन्द्रियाणि भवन्ति तस्थ जीवस्य तावन्ति इन्द्रियाणि भणितव्यानि - वक्त अब गौतमस्वामी प्रभु से ऐसा पूछते हैं - (नेरइरणं भंते! किं पोग्गली, पोग्गले ) हे भदन्त ! क्या तैरयिक पुली कहलाता है या पुद्गल कहलाता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं ( एवं चेव एवं जाव वैमाणिए नवरं जस्स जइ इंदियाई तस्स तहवि भाणिपव्वाई ) हे गौतम । समुच्चय जीव की तरह नैरयिक भी अपनी पांच इन्द्रियों की अपेक्षा “ पुगली " ऐसा कहा जाता है और अपने जीव की अपेक्षा वह (पुद्गल ) ऐसा कहा जाता है । इसी तरह से यात्रत् - पृथिवीकायिक आदि एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय, तियैच, मनुष्य, भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिषिक, और वैमानिक ये सब जीव इन्द्रियों की अपेक्षा से "पुद्गली " और अपनी अपेक्षा से " पुद्गल " ऐसा कहे जाते हैं । परन्तु - सब जीवों में पांच ही इन्द्रियों की अपेक्षा नहीं करनी चाहिये, ગૌતમ સ્વામીને પ્રશ્ન - ( नेरइयेणं भते ! किं पोगाली, पोगले ? ) डे ભદન્ત ! નારકને પુદ્ગલી કહેવાય છે કે પુદ્ગલ કહેવાય છે ? " महावीर अलुना उत्तर- ( एवं चेव, एवं जाव वैमाणिए, नवर' जस्स जइ इंदियाई तस्स तवि भाणियव्वाई ) हे गौतम! समुभ्यय लवनी प्रेम નારકને પણ પેાતાની પાંચ ઇન્દ્રિયેાની અપેક્ષાએ “ પુદ્ગલી ” કહી શકાય છે, અને પેાતાના જીવની અપેક્ષાએ તેને ‘પુદ્ગલ’ કહી શકાય છે. એજ પ્રમાણે पृथ्वीअयिङ माहि मेडेन्द्रिय, विम्वेन्द्रिय, यथेन्द्रिय तिर्यय, मनुष्य, भवनः પતિ, વાનભ્યન્તર, ચૈાતિષિક અને વૈમાનિક જીવને પણ ઇન્દ્રિયાની અપેક્ષાએ * પુદ્ગલી અને પેાતાની અપેક્ષાએ ( જીવની અપેક્ષાએ ) " પુદ્દલ કહી શકાય છે. પરન્તુ સમસ્ત જીવાને પાંચ ઇન્દ્રિયાતી નથી, તેથી ખાં 66
SR No.009317
Book TitleBhagwati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages784
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size46 MB
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