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________________ भगवती सूत्रे ४० बधे पण्णत्ते, तं जहा - ईरियाबहियाबंधे य संपराइयवधे व हे गौतम । द्विविधः कर्मबन्धः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - ऐर्यापथिकबन्धञ्च सांपरायिकवन्धञ्च तत्र-ईरणम्इर्या-गमनं तद्विशिष्टः तत्प्रधानो वा पन्थाः ईयपयः, तत्र भवः ऐर्यापथिकः व्युत्प त्तिमात्रमिदम्, प्रवृत्तिनिमित्तं तु यः केवल योगमत्ययः उपशान्तमोहादित्रयस्य शातdeareshers: a ऐर्यापथिकवन्धः । स चैकस्य वेदनीयस्य भवति । संपरैति संसारं पर्यटति एभिरिति संपरायाः कपायास्तेषु भवं सांपरायिकं कर्म तस्य यो स 1 अधिकार चल रहा है । इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोयमा' हे गौतम ! ( दुविहे बंधे पण्णत्ते) वध दो प्रकार का कहा गया है-' तं जहा ' जो इस प्रकार से है - ' ईरियावहिघबंधे य, संपराइयबंधे य ' एक ऐपथिक बंध और दूसरा सांपरायिक बंध "ईग्र नाम गमन का है - इससे युक्त अथवा इस प्रधान वाला जो पथ रास्ता है वह ईर्यापथ है - इस ईर्यापथ में जो बंध होता है वह ऐयपिथिक बंध है । सो ऐसी जो यह ऐपथिक की व्युत्पत्ति है वह केवल व्युत्पत्तिमात्र ही है-ऐयापथिक की प्रवृत्ति का निमित्त तो ऐसा ही है कि जो बंध केवल योगनिमित्तक होता है वह पथिक षध है । यहघध सातावेदनीय कर्मव धरूप होता है । ओर यह ११ वें १२ वें एवं ९३ वे गुणस्थान में होता है । क्यों कि इन गुणस्थानों में एक वेदनीय कर्म का ही बंध होता है । जिनके द्वारा जीव ससार में भ्रमण करता है-उनका नाम संपराय है-ऐसे ये संपराय कषायें हैं। इन कषायों के सद्भाव में जो कर्म होता है वह सांपरायिक 1 भडावीर अलुनो उत्तर - ( गोयमा ! दुविहे बधे पण्णत्त-तं जहा ) डे गौतम | अधना नीचे प्रमाणे मे अार उद्या छे - ( ईरियावहि य यय, संप राइयबधेय ) थ अध अने (२) सांप यि गंध. ''धर्मा' खेटसे गमन. तेनाथी युक्त ने भार्ग तेने धर्यायथ डे छे. તે ઈર્ષ્યાપથમાં જે અંધ થાય છે તેનું નામ અય્યપથિક ખ'ધ છે. આ તે માત્ર ઈર્ષ્યાપથની વ્યુત્પત્તિ જ છે, પણ અહી' તેને આ પ્રમાણે અથ સમજવેા ", ઐય્યપથિક પ્રવૃત્તિ ચેગ નિમિત્તે જ થાય છે. તેથી ચેાગનિમિત્તક જે મધ હાય છે તેને અાઁપથિક ખધ કહે છે. આ બંધ સાતાવેદનીય કર્માંબધ રૂપ હાય છે. અને તે ૧૧ માં, ૧૨ માં અને ૧૩ માં ગુણુસ્થાનમાં થાય છે. કારણ કે તે ગુરુસ્થાનામાં એક વેદનીય કર્માંના જ મધ હાય છે. જેના દ્વારા જીવ સોંસારમાં ભ્રમણ કરે છે તેનુ નામ સંપરાય છે. કષાય એવાં સપરાય રૂપ હોય છે. તે કષાયાના સદૂભાવ હાય ત્યારે જે કમ બંધાય છે તેનું નામ
SR No.009317
Book TitleBhagwati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages784
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size46 MB
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