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________________ प्रन्द्रिका टीका श० ८ ० ८ सू० ३ कर्मबन्ध स्वरूपनिरूपणम् ३७ यावत्-अस्त्येकको न वद्धवान्, न बध्नाति, न भन्तस्यति, ग्रहणाकर्षं प्रतीत्य अस्त्येकको बद्धवान् बध्नाति, भन्रस्यति, एवं यावत् अस्त्येकको न बद्धवान् बध्नाति, भन्त्स्यति, नो चैव खलु न वद्धवान्, बध्नाति, न भन्त्स्यति, अस्त्येकको न वद्धवान्, , न किसी एक ने उसे पहिले बांधा है, वही एक उसे बांधता है, वही एक जीव उसे नहीं बांधेगा ' एवं तं चैव सव्वं ' इस तरह पूर्वोक्त सब कथन यहां 'जाव अत्थे गइए न बंधी, न बंधइ, न बंधिस्स ' यावत् किसी एक ने पूर्व में इसे बांधा नहीं है, वर्तमान में वही एक जीव इसे बांधता नहीं है और भविष्यत् में वही एक जीव इसे बांधेगा नहीं " इस सूत्र पाठ तक जानना चाहिये । 'गहणागरिसं पडुच्च अत्थेगइए बंधी, बंध बंधिस्सइ - एवं जाव अत्थे गाए न बंधी, बंधइ बंधिस्स ' ग्रहणाकर्ष को आश्रित करके किसी एक जीव ने उस ऐर्यापथिक कर्म को पहिले बांधा है, वर्तमान में वही एक जीव इसे बांधता है, और आगे इसे वही एक जीव बांधेगा । इसी तरह से यावत् किसी एक जीव ने बांधा नहीं है, बांधता है, और बांधेगा यहां तक कथन पूर्वोक्त रूपसे जानना चाहिए । ( णो चेव णं न बंधी, बंधइ, न बंधिस्सर ) यहां यह भंग - "बांधा नहीं है, बाँधता है, वांधेगा नहीं " नहीं है । ( अत्थेगइए न नबंध, न धितइ ) किसी एक जीवने पहिले इसे बांधा नहीं પહેલા તેને ખાધ્યું છે, વમાનમાં એજ જીવ તેને ખાધે છે અને એજ એક त्र तेने जांघशे नहीं. ( एवं त चेत्र सव्व ) भी प्रभा पूर्वेत समस्त કથન અહીં ગ્રહણુ કરવુ એટલે કે “ કોઇ એક જીવે ભૂતકાળમાં એપથિક ક ખાધ્યું નથી, વમાનમાં એજ જીવ તેને ખાંધતા નથી અને ભવિષ્યમાં એજ જીવ તેને ખાંધશે નહી ” આ સૂત્રપાઠ સુધીનુ કથન અહીં ગ્રહણ કરવું लेथे. ( गणागरिसं पहुच्च अत्येगइए बंधी, व धइ, बंधिस्लइ एवं जाव अत्येगइएन वधी, बधइ, व घिस्स्रह ) ग्रहणानी अपेक्षाये ( मेन लवनां અય્યપધિક ક પુદગલાને ગ્રહણ કરવા તેનુ નામ ગ્રહણાક' છે) કઇ એક જીવે તે અય્યપથિક કમ પહેલા ખાધ્યુ હાય છે, વમાનમાં એજ એક જીવ તેને ખાંધે છે અને ભવિષ્યમા પણ એજ એક છત્ર તેને ખાંધશે, એજ પ્રમાણે “ કાઈ એક જીવે તેને બાંધ્યુ' નથી, એજ જીવ તેને ખાધે છે અને ખાધશે ” महीं सुधीनु अथन भागजना स्थन सुभ् समन्धुं ( णो चेत्र णं न बधी बंध, न यधिस्सइ ) परन्तु सड़ीं या लौंग लागु पडतो नथी- " जांघ्यु नथी सांधे छे, माघशे नही " ( अश्येगइए न वधी, न बधइ, न पधिस्सइ ) मई
SR No.009317
Book TitleBhagwati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages784
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size46 MB
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