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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० ८ ०९ सू०४ मदारिकशरीरप्रयोग धन्धवर्णनम् २७५ जीवस्य खलु पृथिवीकायिकत्वे, नो पृथिवीकायिकत्वे अष्कायिकत्वाद, पुनरपि पृथिवीकायिकत्वे सति पृथिवीकायिकै केन्द्रियौदारिकशरीरप्रयोगवन्धान्तरं कालतः कालापेक्षया कियच्चिर भवति ? भगवानाह - 'गोयमा । सव्वतरं जहoj दो खुडागाई भग्गहणाई तिसमयऊणाई, उक्कोसेणं अनंतं कालं, अनंता उस्सप्पिणी ओसप्पिणीओ कालओ' हे गौतम! जीवस्य तथाविधे पुनः पृथिवीकायिकरवे सति पृथिवीकै केन्द्रियौदारिकशरीरप्रयोगस्य सर्ववन्धान्तरं जघन्येन द्वे क्षुल्लके भवग्रहणे त्रिसमयन्यूने भवति, उत्कृष्टेन तु अनन्तं कालम्, अनन्ता उत्सर्पिण्यत्रसपिण्यः कालतः कालापेक्षया भवति 'खेत्तओ अनंता लोगा असंखेज्जा पोग्गल परि पओगबंधंतरं कालओ केवच्चिरं होई) हे भदन्त ! कोई एक जीव पृथि कायिकों में था, सो वहां से मरकर वह फिर पृथिवीकाधिक नहीं हुआ अन्यत्र उसका जन्म हुआ, अब वह यहां से मरकर फिर पृथिवीकायिक हो गया तो ऐसी स्थिति में पृथिवीकायिक एकेन्द्रिय औदारिक शरीर प्रयोग के बंध का अन्तर काल की अपेक्षा से कितना होता है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - (गोधमा ) हे गौतम । ( सव्वबंधंतरं जहणेणं दो खुड्डाई भवरगहणाई तिसमयऊणाई, उक्कोसेणं अणतं कालं अणता उस्सप्पिणी ओसप्पिणी ओ कालओ ) ऐसी स्थिति में उसके औदारिक शरीर का सर्वधान्तर जघन्य से तीन समय कम दो क्षुद्रभवग्रहण का होता है और उत्कृष्ट से अनन्तकाल का अनन्त उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल का होता है । यह तो काल की अपेक्षा से कहा गया है (खेत्तओ अनंता लोगा, असंखेजा पोग्गलपरिया ) क्षेत्र की अपेक्षा से अन કોઈ એક છત્ર પૃથ્વીકાયક પર્યાયમા ઉત્પન્ન થયા હતા ત્યાંથી મરીને તે પૃથ્વીકાય સત્રાયની કાઇ અન્ય પર્યાયમાં ઉત્પન્ન થઈ ગયે, અને ત્યાંથી મરીને ફરીથી તે પૃથ્વીકાયિકામાં ઉત્પન્ન થઈ ગયા, તા એવી સ્થિતિમાં પૃથ્વી. કાયિક એકેન્દ્રિય પ્રયાગમધનું અંતરકાળની અપેક્ષાએ કેટલુ હાય છે ? महावीर प्रलुना उत्तर- " गोयमा । ” डे गौतम ! ( सव्वबध तर जह णेr दो खुदागं भवग्गणाई तिस्रमयऊगई, उक्कोसेण अनंत काल, अण ता उस्सपिणी ओसपिणीओ कालओ) सेवी स्थितियां तेना मोहारि शरीरतु सर्वઅધાન્તર જઘન્યની અપેક્ષાએ બે ક્ષુલ્લક ભગ્રહણ કરતાં ત્રણ ન્યૂન સમય પ્રમાણુ હાય છે અને ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષાએ અનતકાળનું અનત ઉત્સર્પિણી અવસર્પિણી કાળનું હાય છે આ કથન તા કાળની અપેક્ષાએ કર્યુ છે. ( खेचओ अणं तालोगा, असंखेज्ज्ञा पोगलपरियट्टा ) क्षेत्रनी अपेक्षा मे ते
SR No.009317
Book TitleBhagwati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages784
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size46 MB
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