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________________ १२२ भगवती सूत्रे एकदा द्वयोरवेदनात् द्वादशवेदनम् । गौतमः पृच्छति' एक्कविहधगस्त णं भंते ! वीरागछत्थस्स कइ परीसहा पण्णचा ?' हे भदन्त ! एकविधकर्मवन्ध-कस्य खलु वेदनीयवन्धकस्य वीतरागच्छवस्थस्य उपशान्तमोहस्य क्षीणमोहस्य चेत्यर्थः कति कियन्तः परपहा : मज्ञप्ताः ? भगवानाह - गोयमा ! एवं चेत्र जब छविंगस० ' हे गौतम । एवमेव पूर्वोक्तरीत्यैव यथेत्र पवििधकर्मवन्धकस्य चतुर्दश परोपहाः मोहनीयाद्यष्टपरीप भिन्नाः पूर्व प्रतिपादितास्तथैव एक विधवेदनीयकर्मगन्धकस्यापि चतुर्दश एवं उपर्युक्ताः परीपाः प्रतिपत्तव्याः, द्वादश पुनर्वेदयति शीतोष्णयोश्रर्याशच्ययोश्च पर्यायेण वेदनात् । गौतमः पृच्छति , " गविधणं अंते ! सजोगिभवत्थकेवलिस कई परीसहा पण्णत्ता ? ' हे भदन्त ! एकविधकर्मवन्धकस्य खलु वेदनीयवन्धकस्य त्रयोदशगुणस्थानकवर्तिनः सयोगिभवस्य केवलिनः कति परपहाः प्रज्ञप्ताः ? भगवानाह - 'गोमा ! एकारसपरी सहा पण्णत्ता, नव पुण वेएड' हे गौतम | वेदनीयमात्रवन्धकस्य सयोगिभवस्थ१४ परीषह होते हैं - मोहजन्य ८ परीषह नहीं होते हैं। शीत, उष्ण, चर्या और शय्या इन चार परीपहों में एक काल में दो का ही वेदन होने से यहां-वेदन १२ का होता है । अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं - ( एगविधगस्त णं भंते! सजोगि भवत्थकेवलिस कई परीसहा पण्णत्ता) हे भदन्त ! जो जीव एकविध कर्म का बन्धक होता है ऐसे उस सयोगि भवस्थ केवली जीव में कितने परीबह कहे गये हैं? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं ? ( गोयमा ) हे गौतम! ( एक्कारसपरीसहा पण्णत्ता) एक वेदनीय कर्म का बन्ध करने वाले उस तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोगी भवस्थ केवली के ११ परीषह कहे गये हैं । परन्तु वेदन यहां एक काल में शीत, चर्या और शय्या इनमें से दो परीषहों का ही ક્ષીજી માહવાળા જીવના પણ ૧૪ પરીષહેા હોય છે તેમનામાં પણ માહુજન્ય श्माठ परीषहोने! सद्दलाव होता नथी. तेथे पशु शीत, उष्णु, यर्या अने શય્યા, એ ચાર પરીષહેામાંથી એક સમયે એ પરીષહોવું જ વેદન કરે છે આ રીતે તે એક સાથે ૧ર પરીષડાનું જ વેદન કરે છે. गौतभस्वाभीने प्रश्न- ( एगविहब धस्स णं भते ! सजोगिभवत्थ केव लिएस कई परीसहा पण्णत्ता ? ) डे लहन्त ! खेड प्रहारना मना गंध सेवा સચેાગી ભવસ્થ કેવલી જીવના કેટલા પરીષહ કહ્યા છે ? महावीर अलुना उत्तर - ( गोयमा एक्कारसपरसहा पण्णत्ता १) हे गौतम! વેદનીય કર્મના મધ કરતા તે તેરમાં ગુરુસ્થાનવ સયેાગી ભવસ્થ કેવલીના ૧૧ પરીષહ કહ્યા છે, પણ એવા જીવ એક સાથે ૯ નવ પરીષહાનું જ વેદન
SR No.009317
Book TitleBhagwati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages784
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size46 MB
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