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________________ ११६ भगवती सू तत्परहणं च चारित्रमोहनीयक्षयोपशमरूपम् । अथ वन्धएव लाभाभावात्, स्थानान्याश्रित्य परीषहान् प्ररूपयितुमाह - 'सत्तविहबंधगस्त णं भंते ! कइ परीसहा पण्णत्ता ' गौतमः पृच्छति - हे भदन्त ! सप्तविधवन्धकस्य आयुर्वशेषसप्तपूर्वोक्तकर्मवन्धकस्य खलु जीवस्य कति परीषदाः प्रज्ञप्ताः ? भगवानाह - ' गोयमा ! बावीसं परीसहा पण्णत्ता' हे गौतम! सप्तविधकर्मवन्धकस्य द्वात्रिंशतिः परीपहाः पूर्वोक्ताः प्रज्ञप्ताः किन्तु ' वीसं पुण वेएइ ' विंशतिं पुनः परीपहान् वेदयति, तदाह - ' जं समयं सीयपरीसहं वे एह णो तं समयं उसिणपरिसहं वेएर , " सुत्रे — ' जं समयं' इत्यत्र द्वितीया सप्तम्यर्थे प्राकृतत्वात् । एवमग्रेऽपि बोध्यम्, ततः यस्मिन् समये इत्यर्थः शीतपरीपद वेदयति, नो खलु तस्मिन् समये उष्ण परीषद का सहना वह चारित्रमोहनीय के क्षयोपशमरूप होता है। अब सूत्रकार बंधस्थानों को आश्रित करके परीषहों की प्ररूपणा करते हैंइस में गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा हैं - ( सत्तविहबंधगस्स णं भंते! कह परीसहा पण्णत्ता ) हे भदन्त ! आयुकर्स को छोड़कर शेष साकर्मों का बन्ध करने वाले जीवके कितने परीषह कहे गये हैं ? उत्तरमें प्रभु कहते हैं (गोयमा ! बावीस परीसहा पण्णत्ता ) हे गौतम! ऐसे जीवके २२ परीषह कहे गये हैं । किन्तु (वीसं पुण वेएह ) वेदन उनके २० का ही होता है । क्यों कि ( जं समयं सीयपरीसहं वेएइ) जिस समय वह शीत परीषह का वेदन करता है (णो तं समयं उसिणपरिसहं वेएइ) उस समय वह उष्ण परीषह का वेदन नहीं करता है । क्यों कि शीत और उष्ण इनका परस्पर में अत्यन्त विरोध है - इस कारण युगपत् इन હવે સૂત્રકાર મધસ્થાનાની અપેક્ષાએ પરીષહેાની પ્રરૂપણા કરે છે—આ વિષયને અનુલક્ષીને ગૌતમ સ્વામી મહાવીર પ્રભુને એવા પ્રશ્ન પૂછે છે કે— ( सत्तविधगस्स णं भंते ! कइ परीसहा पण्णत्ता ? ) से लहन्त ! आयुर्भ સિવાયના સાત કર્માના ખધ કરનાર જીવના કેટલા પરીષહ કહ્યા છે? તેના उत्तर भारता भहावीर अलु आहे छे ! ( गोयमा ! बावीसं परीसहा पण्णत्ता ? ) हे गौतम! सेवा लवना २२ मावीश परीष ह्या छे. परंतु ( वीसं पुण वेएइ) ते २० पीसनुं वेहन ो साथै ४ अरे छे. अर े ( जं समय सीय परीसह वेएइ ) ? समये ते शीतयरीषडनुं वेहन रे छे, ( णो त समयं उसिणपरीसहं वेएइ) ? समये ते उष्णुपरीषडनुं वेहन उरतो नथी, કારણ શીત અને ઉષ્ણતા વચ્ચે પરસ્પર અત્યન્ત વિરાધ હાય છે. તેથી તે બન્નેનું
SR No.009317
Book TitleBhagwati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages784
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size46 MB
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