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________________ पमेयचन्द्रिका टीका श.८ उ.६ सू. ३ निर्ग्रन्थाराधकतानिरूपणम् ६९९ अकरणतया अभ्युत्थास्यामि यथाई प्रायश्चित्तं तपःकर्म पतिपत्स्ये 'सेयसंपहिओ असंपत्त थेराय पुवामेव अमुहा सिया' सच अकृत्यसेवी निर्ग्रन्थः संपस्थितः स्थविराणामन्तिके समीपे आलोचनां कर्तुं निस्सृतः किन्तु असंप्राप्त गन्तव्यस्थानपर्यन्तं न गतः अपितु मार्गे एबावतिष्ठते, अथ स्थविराश्च पूर्वमेव अमुखा मुखरहिता वातादिदोपात् निर्वाच; मूकाः स्युः मूका भवेयुः, ' सेणं भंते ! कि आराहए, विराहए ?" हे भदन्त ! स खलु लिग्रन्थः श्रमणः किम् आराधक: संयमाराधको भवति विराधको वा तस्य आलोचनादिपरिणामे सत्यपि आलोचनादि करणामावत इति प्रश्नः ? भगवानाह- 'गोयमा! आराहए, नो चिराहए' हे गौतम ! स निर्ग्रन्थः आराधको भवति, नो यथाह प्रायश्चित्तं तपःकर्म प्रतिपत्स्ये' इस पाठ का संग्रह हुआ है । 'से य संपटिओ असंपत्ते थेराय पुवामेव असुहा सिया' इस प्रकार के विचार वाला वह अक्त्यसेवी निर्ग्रन्थ यहां से स्थविरों के पास आलोचना करने के लिये चल देता है-किन्तु जहां उसे पहुंचना चाहिये था, यहां तक वह नहीं पहुंच पाया-किन्तु मार्गमें ही वह था कि इतने में वे स्थविर वातादि दोष से मूक बन जाते हैं 'से णं भंते! किं आराहए विरोहए' अतः उसे पायश्चित्त आदि दे नहीं सकते हैं-तो ऐसी स्थिति में वह निम्रन्थ हे भदन्त ! आराधकसंयम का आराधक होता है या विराधक होता है-अलोचना करने का भाव था परन्तु आलोचना नहीं की ऐसा प्रश्न है उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा' हे गौतम! 'आराहए नो विराहए' वह निर्ग्रन्थ निन्दिष्यामि, गहिष्ये, वित्रोटयिष्यामि, विशोधयिष्यामि, अकरणतया अभ्युत्थास्थास्यामि, यथाहे प्रायश्चित्त तपःकम मतिपत्स्ये' 20 पूर्वाश्त सूत्रपा अ पमi माव्या . 'से य संपढिओ असपत्तेथेराय पुन्चामेव अमुहासिया ॥ प्रारती વિચાર કરીને તે અકૃત્ય સેવી નિગ્રંથ ત્યાંથી વિરેની પાસે આલેચના કરવા માટે ચાલી નીકળે છે પણ તે નિગ્રંથ તે સ્થવિરેની પાસે પહોંચતા પહેલાં (એટલે કે જ્યારે તે હજી માગમાં જ હતો ત્યારે) તે સ્થવિર વાતાદિ દોષને કારણે મૂક બની જાય છે. तथा तयातन प्रायश्चित्त माह शवी यता नया से ण भते ! कि आराहए, विगहए ?'तमत! यी परिस्थितिमा त नियने साराच सयभना આરાધક કહેવાય કે વિરાધક કહેવાય?- આલોચના કરવાને ભાવ હતો પણ ઉપકત સગે ઉભા થવાથી તેનાથી આલોચના થઈ શકી નહીં તો તેને આરાધક કહે કે વિરાધક? a मन त्तर भापता महावीर प्रभु ४९ छ- 'गोयमा !' गौतम !
SR No.009316
Book TitleBhagwati Sutra Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages811
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size47 MB
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