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________________ ६८२. भगवती सूत्रे भाव„ सेसं तं चैव जात्र परिद्वावेयन्दा सिया' शेषं तच्चैव पूर्वोक्तवदेव यात्रत् स च निर्ग्रन्थः तान् स्थविरपिण्डान् प्रतिगृह्णीयात् स्थविराश्च तस्य अनुगवेषयितव्याः स्युः, यत्रैव अनुगवेजयन स्थविरान पश्येत् तत्रैवानुपदातव्याः स्युः, यदि नो चैव खलु अनुगवेषयन स्थविरान् पश्येत् तदा तान् स्थविरपिण्डान् नो आत्मना शुञ्जीत, नो वा अन्येभ्यो दद्यात् दापयेद्वा, किन्तु एकान्ते अनापाते अचित्ते बहुमाके स्थण्डिले प्रतिलेख्य, प्रमा परिष्ठापयितव्याः स्युः, 'निग्गंथं च णं गाहावा जाव के दोहि पडिग्ग हेहिं उचनिमंतेज्जा' निर्ग्रन्थं च खलु गाथापतिकुल यावत् प्रतिग्रहपात प्रतिज्ञया अनुप्रविष्टं मुनिमति कश्चित् गृहपतिः द्वाभ्यां प्रतिग्रहाभ्यां पात्राभ्यामुपनिमन्त्रयेत् एवं आउसो ! अप्पणा परिभुजाहि ' हे आयुष्मन् ! निर्ग्रन्थ ! एक प्रतिग्रहम् पात्रम् आत्मना स्वयमेव परिभुक्ष्य, उपभोगविषयं दिलवाता है; क्योंकि इस प्रकार से करने पर अदत्तादान का दोष आता है । अन्य साधुजन संबंधी उन ३-४ आदि नौ पर्यन्त के पिण्डों को वह किसी एकान्त, अनापात, अचित्तादि पूर्वोक्त विशेषणोंवाली भूमि में परठ देना चाहिये । यही पूर्वोक्त रूप से उसे करने की बात 'नवरं - एगं आउसो ! अप्पणा भुजाहि, नव थेराणं दलयाहि, सेसं तं चेव, जाव परिद्वावेयव्वेसिया' इस सूत्र पाठ द्वारा समझाई गई है | 'निग्गथं च ण गाहावर जाव के दोहिं उवनिम तेज्जा' इसी तरह से पात्र को लेने की इच्छा से किसी गृहस्थ के घर पर गये हुए निर्ग्रन्थ को कोई दूसरा गृहस्थ दो पात्रों से उपनिमन्त्रण करता है - 'एग आउसो अप्पणा परिभुजाहि, एगं थेराणं दलयाहि' ऐसा कहता है कि हे आयुष्मन् ! इन दो पात्रों में एक पात्र तुम ત્રણ, ચાર આદિ નવ પન્તના પિડા તેણે એકાન્ત, નિન, અચિત્ત આદિ પૂકિત વિશેષણોવાળી ભૂમિમાં પૂર્ણાંકત રીતે [ભૂમિની પ્રતિલેખના તથા પ્રમાર્જના કરીને] थरही हेवा लेहये. सही पूर्वेत 'राते तेनेो विधि अश्वानी वात 'नवरं - एगं आउसो ! अपणा भुंजाहि, नत्र थेराणं दलयादि, सेसं तं चेत्र जात्र परिद्वावेयन्त्रा सिया' या सूत्रपाठ द्वारा सभन्नववा भावी थे. 'निग्गंथं च णं गाहावइ जात्र केइ दोहिं पडिग्गहेहिं उवनिमंतेज्जा' न प्रभारी पात्र सेवानी ४२छाया अ गृहस्थने ઘેર ગયેલા નિગ્ન અને તે ગૃહસ્થ એ પાત્ર આપીને આ પ્રમાણે ઉપનિમ ત્રણ કરે છે— उडे - एगं आउसो अपणा परिभुं जाहि, एगं येराणं दलयाहि ' હે આયુષ્મન્ ! આ બે પાત્રમાંથી એકને આપ ઉપચાગ કરો અને ખીજુ પાત્ર નિગ થને C [
SR No.009316
Book TitleBhagwati Sutra Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages811
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size47 MB
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