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________________ मेयचन्द्रिका टीका श.८ उ. २ मृ.१० लब्धिस्वरूपनिरूपणम् ४७५ सणानि भजनया भवन्ति, अज्ञानिनां तु त्रीणि अज्ञानानि मत्यज्ञानादिलक्ष नि भजनयैव भवन्ति । ' एवं चक्खुदंसणअचक्खुदंसणअणागारोवउत्तावि' एवं यथाऽनाकारोपयुक्ता ज्ञानिनोऽज्ञानिनश्चोक्तास्तथैवेत्यर्थः चक्षुर्दर्शनानाकारोपहुक्ताः, अचक्षुर्दर्शनानाकारोपयुक्ताश्चापि जीवा ज्ञानिनोऽज्ञानिनश्च भवन्ति, कन्तु-'नवर चत्तारिणाणाई, तिन्नि अन्नाणाई भयणाए' नवरं विशेषस्तु पुनरेताबानेव-यत् चक्षुर्दर्शनेतरोपयुक्ताः केवलिनो न भवन्ति इति तेषां चत्वारि नानि भजनया भवन्ति, त्रीणि च अज्ञानानि भजनमा भवन्ति । गौतमः ब्धिकी अपेक्षा से पांच ज्ञान होते हैं और जो अज्ञानी होते हैं उन में तीन अज्ञान होते है । सो ऐसा यह कथन भजनासे ही जानना राहिये. नियमतः नहीं । इमी तरह से 'चक्खुदंसण, अचक्खुदंसण, नणागारोवउत्ता वि' चक्षुदर्शन, अचाक्षुदर्शनरूप अनाकार उपयोगवाले तीवोंके विषयमें भी जानना चाहिये । अर्थात् ये भी ज्ञानी और अज्ञानी उभय प्रकारके होते हैं। चाक्षुजन्य ज्ञानके पहिले और अचक्षुजन्यज्ञानके राहिले जो सामान्य अवलोकनरूप वोध होता है उसका नामचक्षुदर्शन और भचक्षु दर्शन है. हनज्ञानवालोंमें ज्ञानियोंके 'नवरं चत्तारि णाणाई, तिन्नि अन्नाणाई भयणाए' चार ज्ञान और अज्ञानियोंके तीन अज्ञान तक हो सकते हैं । क्यों कि चक्षुदर्शनवालों में. और अचक्षुदर्शनवालों में केवली नहीं होते हैं । अर्थात् केवली केवलदर्शनोपयुक्त होते हैं। इनमें चक्षुर्दर्शनोपयोग और अचक्षुदर्शनोपयोग नहीं होता है । अतः घे उससे उपयुक्त नहीं होते है । इसलिये चक्षुदर्शनोपयुक्तों में और अचक्षुदर्शनोपयुक्तों में भजना से केवल ज्ञानातिरिक्त चार ज्ञान और . અને જે અજ્ઞાની હોય છે તેમાં ત્રણ અજ્ઞાન હોય છે આ કથન ભજનાથી સમજવું. यभथी नही त शत 'चक्खुदंसणअचवखुदसणअणगोरोवउत्ता वि' ક્ષુદર્શન, અચક્ષુદર્શન રૂપે અનાકાર ઉપગવાળા જીના વિષયમાં પણ સમજવું. થિત એ પણ જ્ઞાની અને અજ્ઞાની એમ બંને પ્રકારે હેય છે ચક્ષુજન્યજ્ઞાન પહેલા ને અચક્ષુજન્યજ્ઞાનથી પહેલા જે સામાન્ય અવકનરૂ૫ બેધ થાય છે તેનું નામ सुशन भने मध्यक्षुशन छे तेवामाने (जानीमान) 'नवरं चत्तारिनाणाड तिन्नि भन्नाणाई भयणाए' या२ जान भने त्र मान मनाया जाय छे भो ક્ષુદર્શનવાળાઓમાં અને અચક્ષુદર્શનવાળાઓમાં કેવળી હોતા નથી અથત વળી કેવલદર્શનોપયુકત હોય છે તેમાં ચક્ષુદર્શનોપયોગ અને અક્ષદરનો પણ કતા નથી એટલા માટે તેઓ તેનાથી ઉપયુકત હોતા નથી એટલા માટે તે બંનેને
SR No.009316
Book TitleBhagwati Sutra Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages811
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size47 MB
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