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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श. ७ उ. ९ सु. १ प्रमत्तसाधुनिरूपणम् ६७३ करोति ? किंवा 'तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विजब्बर' तत्रगतान् = वैक्रियलब्ध्या विकुर्वणां कृत्वा यत्र गमिष्यति तत्रस्थितान् पुद्गलान पर्यादाय गृहीत्वा विकुर्वति ? किंवा 'अण्णत्थगए पोग्गले परियाडत्ता विजब्बर ?” अन्यत्र गतान् उक्तस्थानद्वयादन्यत्र व्यवस्थितान् पुद्गलान् पर्यादाय गृहीत्वा विकुर्वति ? भगवानाह - 'गोयमा ! इहगए पोग्गले परियाइत्ता विउन्ड' हे गौतम ! - क्रियलब्धिमान प्रमत्तोऽनगारः उहगतान् एतल्लोकस्थितानेव पुद्गलान् पर्यादाय त्रिकुर्वति, 'णो तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता बिउव्व' नो तत्रगतान् पुद्गला पर्यादाय गृहीत्वा विकुर्वति, 'णो अष्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउच्चइ' नो वा अन्यत्रगतान् उक्तस्थानद्वयातिरिक्तस्थानस्थितान् पुद्गलान पर्यादाय विकुर्वति, 'एवं एगवण्णं अणेगरूवं चउभंगो' एवम् = पूर्वोक्तैकवणैकग्रहण करके विकुर्वणा करता है ? या 'अण्णत्थगए पोग्गले परियाहत्ता विब्वह' इन दोनों स्थानोंसे भिन्न स्थान में रहे हुए पुद्गलोंको ग्रहण करके वह विकुर्वणा करता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं कि 'गोयमा' हे गौतम ! 'इहगए पोग्गले परियाइत्ता बिउव्वज्ञ' वैक्रियवब्धिवाला प्रमत्त अनगार इस लोकस्थित ही पुद्गलोंको ग्रहण करके विकुर्वणा करता है । 'णो तत्थगए पोगले परियाहन्ता विडव्व' तत्रगत पुद्गलों को विकुर्वणा करके जहां पर उसे जाना वहाँके स्थान के पुद्गलों को ग्रहण करके वह विकुर्वणा नहीं करता और' णो अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता बिउव्व' न अन्यत्रगत उक्तस्थानद्वयसे अतिरिक्त स्थानमें स्थित हुए पुद्गलोंको ग्रहण करके वह विकुर्वणा करता है । 'एवं एगवण्णं अणेगरूवं चउभंगो' पूर्वोक्त भवानु होय छे, ते क्षेत्रना युगसोने श्रणु उर्शने विदुरे छे ? 'अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विब्बइ ?' ते भन्ने स्थानोथी लिन्न स्थानमा रहेसां गतेोने ગ્રહણુ કરીને વિષુ ણા કરે છે? આ तेना उत्तर आयता महावीर अनु छे - ' गोयमा ! ' हे गौतम! 'इहगए पोग्गले परियाइत्ता विव्वड' वैयि सम्धिवाणो अभत्त आशुभार લાકમાં રહેલા પુદ્ગલાને ગ્રહણ કરીને જ વિકણા કરે છે 'णो तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता बिउब्वई' तत्रगत युगसोने ( विदुवा हरीने तेने न्या न्वानु डाय ते स्थाननां युगसाने ) अरीने ते विदुर्वा उरतो नथी, भने 'णो अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउन्नइ' अन्यत्रगत ( उपर्युक्त भन्ने स्थानो सिवायना સ્થાનના ) પુદ્ગલેને ગ્રહણ કરીને પણ તે પ્રમત્ત અણુગાર વિધ્રુણા કરતા નથી.
SR No.009315
Book TitleBhagwati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages880
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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