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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श.७ उ.८ सू.१ छद्मस्थमनुष्यादिनिरूपणम् ६४५ प्रतिपादयितुमाह-'मे गूणं भंते ! हथिस्स य कुंथुस्स य समे चेव जीवे ?' गोतमः पृच्छति-हे भदन्त ! अथ नूनं निश्चितं किं हस्तिन श्च विशालकायस्य कुन्थोश्च त्रीन्द्रियक्षुद्रजीवविशेषस्य अत्यन्तलघुकायस्य च सम एव समान एव जीव आत्मा वर्तते ? । भगवानाह-'हंता, गोयमा ! हथिस्स य कुंथुस्स य एवं जहा 'रायप्पसेण इज्जे' जाव-खुड्डियं वा, महालियं वा' हे गौतम ! हन्त, सत्यम् हस्तिनश्च महाविशालकायस्यापि, अथ च कुन्थोश्च त्रीन्द्रियक्षुद्रजन्तुविशेषस्य अत्यन्तलघुकायस्यापि एवं-जीवात्मा कायप्रमाणानुसारं स कोचविकाशशालित्वेऽपि समान एव वर्तते केवल कायमात्रे विभेद इत्यासूत्रकार जीवात्माके काय प्रमाणानुसार संकोच विकास स्वभावका प्रतिपादन करनेके निमित्त कहते हैं-इसमें गौतमने प्रभुसे ऐसा पूछा है कि-'से पूर्ण भंते! हथिस्स य कुथुस्स य ससे चेव जीवे' हे भदन्त ! हाथीका जीव और कुंथुका जीव क्या बराबर है ? पूछनेका तात्पर्य ऐसा है कि हाथी का शरीर विशाल अवगाहनावाला होता है और कुन्थुका शरीर बहुत ही कम अवगाहनावाला होता है-यह कुन्थु ते इन्द्रिय जीव है । सो बडे शरीरमें बडा रहता होगा और छोटे शरीर में छोटा जीव रहता होगा. इसी अभिप्राय से गौतमने प्रभु से ऐसा प्रश्न किया है कि क्या दोनोंका जीव वराबर है-या छोटा बडा है? उत्तर में प्रभु उनसे कहते हैं कि-हंता, गोयमा ! हथिस्स य कुन्थुस्स य एवं जहां रायप्पसेणइज्जे, जाव खुड्डियं वा महालिय वा' हां, गौतम ! विशाल काय हाथी का और अत्यन्त क्षुद्रकाय तेइन्द्रिय कुन्युका जीत्र बराबर है। जीव असंख्यात प्रदेशवाला सिद्धान्तमें कहा गया है । अतः जीव चाहे हाथी के शरीरमें रहे चाहे कुन्थुके शरीर हत्थिस्स य कुंथुस्स य समेचेव जीवा ?" HEd! शुडाथान। 4 मने કીડીને જીવ સરખો હોય છે ? પ્રક્ષકારના પ્રશ્નનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે- હાથીનું શરીર વિશાળ અવગાહનાવાળું હોય છે અને કીડીનું શરીર ઘણું જ ઓછી અવગાહનાવાળું હેાય છે કીડી તેઈન્દ્રિય જીવ છે. શું મેટા શરીરમાં મેટો છવ હોય છે અને નાના શરીરમાં નાનો જીવ હોય છે? કે બન્નેના શરીરમાં સમાન જીવ રહેલો હોય છે? उत्तर-हता. गोयमा! हथिस्स य कुथुस्स य एवं जहा रायप्पसेणइज्जे जाव खड़िय वा महालिय वा' , गौतम ! विशय हाथीना मने मत्यन्त મુકાય તેઈન્દ્રિય કીડીને જીવ સરખેજ હોય છે જીવને અસ ખ્યાત પ્રદેશવાળ કહ્યો છે. ભલે જીવ હાથીના શરીરમાં રહે કે કીડીના શરીરમાં રહે, પણ બંને જગ્યાએ તે
SR No.009315
Book TitleBhagwati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages880
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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