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________________ भगवती ४७० पृच्छति' से केणद्वेणं ते! एवं बुचइ-जं वेदेसु नो तं णिज्जरेंसु, जं णिज्जरेंसु नो तं वेदेंख' हे भदन्त ! तत् केनार्थेन एवमुच्यते यत् कर्म अवेदयन् न तदेव निरजरयन्, यदेव वा कर्म निरजरयन न तदेव अवेदयन? भगवानाह - 'गोयमा ! कम्म वेदेंसु, नो कम्म निज्जरेंसु' हे गौतम! कर्म अवेदयत्= वेदितवन्तः, नोकर्म वेदितरसं कर्म निरजयन निजरितवन्तः कर्मभूतस्य कर्मणो निर्जराणां संभवात् तदुपसंहरन्नाह - ' से तेणट्टेणं गोयमा ! जाव एकविषयता भी नहीं आती है। अब गौतमस्वामी प्रभुसे ऐसा ही पूछते हैं कि 'से केद्वेणं संते ! एवं बुच्चइ जं वेदेंसु नो तं णिज्वरे सु, जे णिज्जरेंसु नो त वेदेंसु' हे भदन्त ! आप ऐसा किस कारणसे कहते हैं कि जीवोंने जिस कर्मको पूर्वकालमें वेदा है उस कर्मकी उन्होंने निर्जरा नहीं की है और जिस कर्मकी उन्होंने निर्जराकी है उसे उन्होंने वेदा नहीं हैं ? इसके उत्तरमें प्रभु उनसे कहते हैं कि 'गोमा' हे गौतम! 'कम्मंवेदेसु, नो कम्मं निज्जरे सु' जीवोंने कर्मका वेदन किया है और नो कर्म की उन्होंने निर्जरा की है तात्पर्य यह है कि जीवोंने जिस कर्मका वेदन किया होता है उस कर्मकी वे निर्जरा नहीं करते हैं और जिसकी निर्जरा वे करते हैं उसका वे वेदन नहीं करते हैं । वेदितरस वाला जो कर्म है यह नोकर्म है इसकी ही निर्जरा होती है । कर्मभूत कर्म की निर्जरा नहीं होती है । 'से तेणणं गोयमा ! जाव नो तं वेदेसु' , हुवे गौतम स्वामी भहावार असुने सेवा प्रश्न पूछे छे - 'से केणद्वेणं भंते! एवं बुच्चर -- जं वेदेसु नो तं णिज्जरे सु, जे णिज्जरेंसु नो तं वेदें सु હે ભદન્ત! આપ એવું શા કારણે કહેા છે કે જીવેએ જે ક'ને ભૂતકાળમાં વેદી લીધું છે, તે કર્મની તેમણે નિરા કરી લીધી હાતી નથી, અને તેમણે જે કર્મની નિર્જરા કરી હેાય છે, તેનુ તેમણે વેદન કરી લીધુ હતુ નથી ? તેના ઉત્તર આપતા મહાવીર પ્રભુ કહે છે કે'गोयमा !' हे गौतम! 'कम्मं वेदे सु, नोकम्म निज्जरें सु' वे द्वारा मनुं वेहन पुरायु होय छे भने નાકમની નિર્જરા કરવામાં આવી હાય છે. આ કથનના ભાષા નીચે પ્રમાણે છે– જીવાએ જે ક`તુ વેદન કર્યુ હાય છે, તે કર્મીની તેમના દ્વારા નિર્જરા થઇ હતી નથી અને જે કર્માંની તેમણે નિરા કરી લીધી હોય છે, તેનું તેમના દ્વારા વેદન થયું હાતુ નથી. વૈદિત રસવાળું જે કમ છે. તેનુ નાક નાક'' છે. તે નાકની તા निर्भशन थाय छे भूत भनी निशथती नथी. 'से तेणट्टेणं गोयमा ! जाव
SR No.009315
Book TitleBhagwati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages880
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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