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________________ - - ४६८ भगवतीमूशे जाणिज्जरा न सा वेयणा?' हे भदन्त ! तत् केनार्थन कथं तावत् एवमुच्यते यत्-नैरयिकाणां या वेदना न सा निर्जरा, या च निर्जरा न सा वेदना वा ? भगवानाह-गोयमा ! नेरइयाणं कम्मवेयणा, णो कम्मणिज्जरा' हे गौतम ! नैरयिकाणां कर्म वेदना व्यपदिश्यते, निर्जरा तु नोकर्म व्यवदिश्यते । तदुपसंहरनाह-'से तेणढणं गोयमा ! जाव न सा वेयणा । एवं जाव-वेमाणियाणं' हे गौतम ! तत् तेनार्थेन तयोविभिन्नरूपत्वेन यावत्-नैरयिकाणां या वेदना न सैर निर्जरा, या च निर्जरा न सा वेदनैव वा वक्तुं शक्यते, एवं नरयिकवदेव यावत्-भवनपतिमारभ्य वैमानिकान्तानां, चतुर्विशतिदण्डकेषु वेदना-निर्जरा-विषयका आलापका वक्तव्याः। गौतमः अतीतकालमाश्रित्य पृच्छति-'से गुणं भंते ! जं वेदेंस तं निजरिंसु ज णिजरिंसु तं वेदेस' कारणले कहते हैं कि नारकजीवोंकी जो वेदना है वह निर्जरारूप नहीं होती है । इसके उत्तरमें प्रभु उनसे कहते हैं कि 'गोयमा' हे गौतम ! 'रइयाणं कम्मवेयणा, णोकस्म निज्जरा' नारकजीवों के जो वेदना होती है वह कर्मरूप होती है जो निर्जरा होती है वह नोकर्मरूप होती है ऐसा क्यों होता है सो इसका कारण ऊपरमें समर्थित किया ही जा चुका है । 'से तेणढणं गोयमा ! जाव न सा वेयणा, एवं जाव वेनाणियाण' इसी कारण हे गौतम ! मैंने ऐसा कहा है कि नारकजीवोंकी वेदना निर्जरारूप नहीं, और उनकी निर्जरा वेदनारूप नहीं होती है । नरयिकजीवोंकी तरहसे ही यावत् भवनपतिसे लगाकर वैमानिक तकके चौवीस दण्डकोंमें वेदना एवं निराविषयक आला. पक कहना चाहिये । अब गौतमस्वामी अतीतकालको लेकर प्रभुसे . ते प्रश्न उत्तर मापता मडावीर प्रमुछ - 'गोयमा ! ७ गौतम! 'णेरइयाणं कम्मवेयणा, णो कम्मनिज्जरा' ना२४ वानी ना ५ छ, त કર્મરૂપ હોય છે અને તેમની જે નિર્જરા હોય છે તે નોર્મરૂપ હોય છે. આવું કેમ मने छ ते ५२ छपने मनुसाक्षीने प्रतिपाति १२qामा माव्यु छ. 'से तेणणं गोयमा ! जाव न सा वेयणा एवं जाच वेगाणियाण, गौतम! २० મેં એવું કહ્યું છે કે નારક જીવોની વેદના નિજ રારૂપ હોતી નથી, અને તેમની નિજર વેદનારૂપ હોતી નથી ભવનપતિથી લઈને વૈમાનિક પર્યન્તના દેવના વિષયમાં પણ વેદના અને નિર્જરા વિષેના આલાપ નારકની વેદના અને નિર્જરા વિના આલાપ જેવાં જ સમજવા वे गौतम स्वामी भूतनी अपेक्षा मा प्रभारी प्रश्न पूछे छ- 'से प्रणं भंते ! जं वेदें तं निजरिंस, जं निज्जरिंस तं वेदें सु?' डे मन्त! Y
SR No.009315
Book TitleBhagwati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages880
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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