SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 311
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयचन्द्रिकाटीका श. ७ उ. १ . अकर्म जीवगतिस्त्ररूपनिरूपणम् २८१ • भदन्त ! निस्सङ्गतया, निराङ्गणतया, गतिपरिणामेन अकर्मणो गतिः प्रज्ञाप्यते ? तद्यथानाम कश्चित् पुरुषः शुष्कं तुम्बं निश्छिद्रं निरुपहतम्, आनुपूर्व्यां परिक्रममाणः २ दर्भैश्च कुगैश्च वेष्टयति, वेष्टयित्वा अष्टमि मृत्तिकाले पैश्च, लिम्पति, लिप्त्वा उष्णे ददाति, भूयो भूयः शुष्कं सन्तम् अस्ताघे अतारे एवं पूर्वप्रयोग के कारण कर्मरहित भी जीवको गति कही गई है । (कहं णं अंते ! निस्संगयाए निरंगणयाए, गइपरिमाणेणं अकम्मस्स गई पण्णाय) हे भदन्त ! निस्संगता से, नीरागता से, एवं गति परिणाम से, कर्मरहित जीवकी गति किस रीति से कही गई है। तात्पर्य यह कि निस्संगता को लेकर नोरागता को लेकर और गति - परिणामको लेकर, कर्मरहित हुए भी जीवकी गति किस तरह से कही गई है ? ( से जहानामए केई पुरिसे सुकं तुवं निच्छिड्डं निरुवहयं आणुपुन्वोए परिकम्मेमाणे परिकम्मेमाणे दम्भेहिय, कुसेहिय, वेढे, वेढेत्ता अहिं मट्टियावेहि लिंपइ, लिंपित्ता उन्हें दलयह, भूइ भूइं सुकं समाणं अत्थाहमतारमपोरिसिसि उदगंसि पक्खिवेजा) हे गौतम! जैसे कोई पुरुष छेदरहित, एवं अखंड ऐसी तूबडीको क्रम से परिष्कृत करता हुआ दर्भ - डाभ एवं कुश - काशसे वेष्टित करदे और वेष्टित करके फिर आठ बार मृत्तिका के लेपोसे उसे लिप्सकर दे लिप्तकर फिर वह उसे धूप में सूखनेके लिये धरदे इस तरह बार बार सुखाई गई उस तूंबडी को फिर वह अथाह पानी में कि जिसे कोई અને પૂ`પ્રયાગને કારણે ક રહિત જીવની પણ ગતિ હાય છે એવું કહ્યુ છે. (aणं भंते ! निस्संगयाए निरंगणर्याए गइपरिणामेणं अकस्मम्स गई, पण्णायइ?) હે ભદ્દન્ત 1 નિસ ગતા, નીરાગતા અને ગતિપરિણામની અપેક્ષાએ કમરહિત જીવની गति ४४ रीते म्हेवामां भावी छे ? ( से जहा नामए केइ पुरिसे सुकं तुवं निच्छिड निरुवयं आणुपु०बीए परिकम्मेमाणे परिकम्मेमाणे दम्भेहिय, कुसेहिय वेढे वेढेत अहिं महियाले बेर्हि लिंप, लिंपित्ता उन्हे दलय, भूई भूई सुक्क समाणं अत्थाहमतारमपोरिसिसि उदगंसि पक्खिवेज्जा) डे गौतम ! छोड પુરુષ છેરહિત અને ભાંગ્યા તૂટયા વિનાની (ચિરાડ પડયા વગરની ) સૂકી તુંબડીને અંદરથી ખરાખર સાફ કરી નાખે પછી તેને દ અને કાસ ( એક પ્રકારનુ ઘાસ) થી ચારે તરફથી વીંટી દે, ત્યાર બાદ તેના ઉપર આઠ વાર માટીને લેપ કરે, દરેક વખત માટીના લેપ કર્યાં પછી તે તેને તડકામાં સૂકવી નાખે આ રીતે વાર વાર સુકવવામાં આવેલી તુખડીને તે કાઇ એવા જળાશયમાં નાખી દે કે જેમાં પાણી અતિશય ઊડુ ·
SR No.009315
Book TitleBhagwati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages880
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy