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________________ १६४ . . . . . . . . भगवतीसगे भदन्त ! किम् इहगतान् पुद्गलान पर्यादाय विकुर्वति, तत्रगतान् पुद्गलान् पर्याद य विकुर्वति, अन्यत्र गतान् पुद्गलान् पर्यादाय विकुर्वति ? गौतम ! न इगतान् पुद्गलान पर्यादाय विकुर्वति, तत्रगतान् पुद्गलान् पर्यादाय विकुर्वति, न अन्यत्रगतान् पुद्गलान् पर्यादाय विकुर्वति । एवम् एतेन को ग्रहण करके एकवर्ण वाले तथा एक आकार वाले अपने शरीरकी विकुर्वणा कर सकता है क्या ? (हंता पभू) हां, गौतम ! कर सकता है। (से णं भंते ! किं इहगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वद, तत्थगए पोग्गले परियाउत्ता विकुदइ, अन्नत्धगए पोग्गले परियाइत्ता विउब्वड) हे भदन्त ! वह देव क्या यहाँ पर रहे पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है ? कि तगत-देवलोक में रहे हुए- पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है ? या अन्यत्रगत कोई दूसरी जगह पर रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है ? (गोयमा) हे गौतम ! (णो इहगए पोग्गले परियाएत्ता विकुव्वइ, तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुब्वइ, णो अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वड) इहगत--यहां पर रहे हुए- पुद्गलों को ग्रहण करके वह देव विकुर्वणा नहीं करता है किन्तु देवलोक में रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके ही विकर्वणा करता है। इस तरह से यह बात भी म्पष्ट हो जाती है कि वह देव अन्यत्रगत पुदगलों को ग्रहण करके विकुर्वणा नहीं करता है। (एवं एएणं गमेणं जाव एगवन एगरूब, ગ્રહણ કરીને એક વર્ણવાળા અન એક આકારવાળા પિતાના શરીરની વિદુર્વણુ કરી श छे मरे ? (ता, पभू) , गौतम! श श छ. (सेणं भंते ! किं इहगए पोग्गले परियाइत्ता विउबइ, तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउन्बइ, अन्नत्थगए पोग्गले परियाइत्ता घिउन्बइ ?) महन्त! ते ५ २६ २७ता પુદ્ગલેને ગ્રહણ કરીને વિમુર્વણુ કરે છે, કે ત્યાં દેવલોકમાં) રહેલાં પુગલેને ગ્રહણ કરીને વિદુર્વણા કરે છે, કે અન્યત્ર (બીજી કઈ જગ્યાએ) રહેલાં પુગલે ગ્રહણ કરીને पिg! ४२ छ ? (गोयमा !) 3 गौतम! (णो इहगए पोग्गले परियाइत्ता विकुव्वइ, तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुबइ, णो अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वइ) ते देव महा २dal सान हY ४शन विधु' ४२ते નથી, કેઈ વચ્ચે રહેલાં પુદ્ગલેને ગ્રહણ કરીને પણ વિષ્ણુર્વણ કરતું નથી, પરંતુ દેવકમાં २i yान ४ ४शने ॥ विggu ४३ छ. (एवं एएणं गमेणं जाव
SR No.009315
Book TitleBhagwati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages880
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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