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________________ ममेयचन्द्रिका टीका श.६ उ.७ सू.४ सुषममुषमाधरकनिरूपणम् भारतप्रदेश इत्यर्थः एवंरीत्या भारतस्य भूमिसमतायाः, भूमिभागगतवणमणीनां वर्णपश्चकस्य, सुरभिगन्धस्य, कोमल स्पर्शस्य, शुभशब्दस्य, वाप्या दीनाम्, वाप्याद्यनुगतोत्पातपर्वतादीनाम्, उत्पातपर्वताधाश्रितानां हंसाऽऽसना दीनाम्, लतागृहादीनाम्, शिलापट्टकादीनांच वर्णना वक्तव्या, तादृशवर्णनान्ते च जीवाभिगमे एवं दृश्यते-'तत्थणं वहवे भारया मणुस्सा मणुस्सीओय आसयंति, सयंति चिट्ठति, निसीयंति, तुयर्छति' इत्यादि, तत्र खलु वहव भारताः मनुष्याः मानुष्य श् आसीदन्ति, शेरते, तिष्ठन्ति, निषीदन्ति, त्रुटयन्ति, इत्यभिप्रायेणेवाह-'जाव आसयन्ति, सयंति, यावत्-आसीदन्ति,. शेरते। यावत्पदसंग्राह्याणि जैसा एकसा रहता है इसी वर्णनके अनुसार भरतक्षेत्रका भूभाग भी प्रथमकाल सुषमसुषमाके समयमें ऐसा ही रहता है भूमिभागमें रहे हुए तृण और मणि ये मब पांच वर्णवाले होते हैं, गंध सुगंधित होती है, स्पर्श कोमल होता है, शब्द सुहावने होते हैं, वापिका आदिमें अनुगत उत्पात पर्वत आदि होते हैं, उत्पात पर्वतादिकोंके आश्रित हंसासन आदि होते हैं, लतागृह आदि होते हैं, शिलापट्टक आदि होते हैं सो इन सब बातों का वर्णन भी यहाँ भारतक्षेत्रकी भूमिमें करलेना चाहिये । क्योंकि ऐसा ही वर्णन जीवाभिगम सूत्र में किया गया है । इसवर्णनके अन्त में जीवाभिगमसूत्र में फिर ऐसा पाठ आया हुआ है 'तत्य णं बहवे भारया मणुस्सा मणुम्सीओ य आसयंति, सयंति, चिटुंति, निसीयंति, तुयति' इसी अभिप्रायको लेकर यहां पर भी सूत्रमें 'जाव आसपंति, सयंति' ऐसा पाठ कहा गया है। यहां यावत् शब्दसे जिन पदोंका संग्रह हुआ है वे पद सब_ ભરતક્ષેત્રને ભૂમિભાગ પણ પ્રથમ કાળ સુષમસુષમાના સમયમાં એ જ રહે છે. ભૂમિભાગમાં રહેલાં તૃણ અને મણિ પાચ વર્ણવાળા હોય છે, ગંધ સુગંધી જ હોય છે. સ્પર્શ કેમળ હોય છે, શબ્દ મધુર હોય છે, વાપિકા આદિ હોય છે, વાપિકા આદિમાં અનુગત ઉત્પાત પર્વત આદિ હોય છે, ઉત્પાત પર્વતાદિકમાં આશ્રિત હંસ આદિ હોય છે, લતાગૃહ આદિ હોય છે, શિલાપટ્ટક આદિ હોય છે. તે એ બધી વસ્તુઓ ભારતવર્ષમાં પણ હોય છે એમ સમજવું. આ વર્ણનના અન્તભાગે જીવાભિગમ સત્રમાં मा प्रजाती सूत्रा: माया छ- 'तत्थ णं वहवे भारया मणुस्सा मणुस्सीओय आसयंति, सयंति, चिट्ठति, निसीयति, तुयट्रंति' से वातने भनुलक्षीन. मी पy "जाच , आसयंति, सयंति', मेवे ५४ . माया छे. माही 'यायत' ५४था रे पहानी संग्रड थयो छे, ते सभर पह! B५२ भावामा मावा छे.
SR No.009315
Book TitleBhagwati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages880
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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