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________________ प्रचन्द्रिका टी० श०६ उ०३ ० ४ कर्मस्थिति निरूपणम् ९२१ - - नीयवः सप्तापि कर्मप्रकृतयो वेदितव्याः, तथाहि - वेदनीयवर्जितानि दर्शनावरणादिकर्माण्यपि आभिनिवोधिकज्ञानि प्रभृतयथत्वारी ज्ञानिनः कदाचित् सरागीवस्थायां वनन्ति कदाचिद् वीतरागावस्थायां न वध्नन्ति, केवलज्ञानी तु न बध्नाति । वेयणिज्जं हेट्ठिल्ला चत्तारि वर्धति ' वेदनीयं कर्म अधस्तनाः आयाश्रुत्वार आभिनिवोधिकज्ञानिमभृतयोऽपि बध्नन्ति, छद्मस्थानां शाताशातवेदनीयस्य वीतरागाणां च शात वेदनीयस्य वन्धकत्वात् । ' केवलणाणी भयणाए' केवलज्ञानी भजनया कदाचिद् बध्नाति वेदनीयस्, कदाचिन्न ब्रध्नाति, सयोगिकेवलिनां वेदनीयबन्धकत्वात् अयोगिकेवलिनां सिद्धानां चावन्धकत्वात् ' भजनया' इत्युक्तम् ! के सर्वथा क्षय से ही केवलज्ञानप्राप्त होता है ( एवं वेघणिज्जवज्जाओ सप्तवि ) ज्ञानावरण कर्म की तरह से ही वेदनीयवर्ज सात कर्म प्रकृतियां जाननी चाहिये तथा च वेदनीयकर्म से रहित दर्शनावरणीय आदि कर्मों का भी आभितिबोधिक आदि चारज्ञानवाले जीव कदाचित् बंध करते हैं और कदाचित् नहीं करते है । जब ये सरागावस्थापन होते हैं - तब तो करते हैं और जब ये वीतरागावस्थापन होते हैं तब नहीं करते हैं । केवलज्ञानी तो इनका बंध करते ही नहीं है । (वेयणिज्जं डिल्ला चत्तारि बंधंति ) आदि के चार ज्ञानवाले जीव वेदनी कर्म का बंध करते हैं। क्यों कि छद्मस्थों के शातावेदनीय का और अशातावेदनीयका बंध होता है और वीतरागोंके केवल एक शातावेदनीय का ही बन्ध होता है । ( केवलणाणी भयणाए ) केवलज्ञानी जीव के वेदनीय कर्म का विकल्प से होता है ऐसा जो कहा गया है उसका कारण यह है कि जब केवलज्ञानी जीव तेरहवें गुणस्थान में रहता विनाश थवाथी तो वणज्ञान आस थतुं होय छे. ( एव वेयणिज्जवज्जा ओ खत्त चि ) बेहनीय ४भ सिवायनी साते उर्भअष्मृतियाना मध विषे उन જ્ઞાનાવરણીય કમના કથન પ્રમાણે જ સમજવું. એટલે કે વેદનીય કમ સિવા ચના સાતે કમાઁ મતિજ્ઞાની, શ્રુતજ્ઞાની, અવધિજ્ઞાની અને મન પયજ્ઞાની ક્યારેક ખાંધે છે અને ક્યારેક ખાંધતા નથી—જ્યારે તેએ સરાગ અવસ્થાવાળા હાય છે ત્યારે કરે છે પણ વીતરાગ અવસ્થાવાળા હાય ત્યારે કરતા નથી. ठेवणज्ञानी आत्मा तो तेभना ५. ४२ ते ४ नथी. (वेयणिज्जं हेठ्ठिल्ला चचारि बंध ति) वेदनीय उनी गंध पसा यार ज्ञानवाणा रे छे, છવાસ્થાને શાતાવેદનીયને અને અશાતાવેદનીયના બંધ હાય છે, પણ વીત रागाने मात्र शातावेदनीयना गंध होय छे. ( केवलणाणी भयणाए ) ठेवणજ્ઞાની જીવ વેદનીય ના બંધ વિકલ્પે ખાંધે છે. આમ કહેવાનું કારણ એ भ ११६ و
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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