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________________ ९१८ भगवतीसूत्र कदाचिन्न वध्नाति, सरागपरीतो ज्ञानावरणीयं कर्म वध्नाति, वीतरागपरीतस्तु तन्नबध्नाति, अतो' भजनया' इत्युक्तम् ' अपरित्ते बंधइ ' अपरीतः साधारणवनस्पतिकायः अनन्त संसारो वा वध्नात्येव, ‘णोपरित्त-णोअपरित्ते न बंधा' नोपरीत-नोअपरीतः सिद्धो न बध्नाति । ' एवं आउगवज्जाओ सत्त कम्मप्पयडीभो' एवं ज्ञानावरणवदेव आयुष्कवर्नाः सप्त कर्मप्रकृतयो ज्ञातव्याः तथाहि-आयुष्कवर्जितानि दर्शनावरणादिकर्माण्यपि परीतः कदाचिद् वध्नाति, कदाचिन्न बध्नाति, अपरोतस्तु बध्नात्येव, नोपरीत-नोअपरीतः सिद्धस्तु न कथमपि वध्नातीति भावः। 'आउगं परित्तो वि अपरित्तो वि भयणाए' आयुष्कं कर्म परीतोऽपि, जीव भजना से ज्ञानावरणीय कर्म का बंध करता है । इसका भाव यह है कि यदि परीत जीव सराग है तो वह ज्ञानावरणीय कर्म का बंध करता है और यदि वह वीतराग है तो वह ज्ञानावरणीय कर्म का बंध नहीं करता है। (अपरिश्ते बंधह) साधारण वनस्पतिकायरूप जीव अथवा जीसका संसार अनन्त है ऐसा जीव-ज्ञानावरणीय कर्म का बंध करता है (णो परित्त णो अपरित्ते न बंधह) जो न परीत है और न अपरीत है ऐसा सिद्ध जीव ज्ञानावरणीय कर्म का बंध नहीं करता है (एवं आउगवजाओ सत्त कम्मप्पयडीओ) ज्ञानावरण कर्म की तरह से ही आयुष्कवर्ज सात कर्मप्रकृतियों को जानना चाहिये-तथा चआयुष्कजित दर्शनावरणीयादि कर्मों को भी परीत जीव कदाचित् बांधता है और कदाचित् नहीं बांधता है। पर जो अपरीत जीव है, वह तो बांधता ही है। जो नो परीत नो अपरीत हैं अर्थात् ऐसे जो અ૫ સંસારવાળે જીવ) જ્ઞાનાવરણીય કર્મને બંધ વિકલ્પ કરે છે આ કથનને ભાવ નીચે પ્રમાણે છે-જે પરીત જીવ સરાગ હોય તે જ્ઞાનાવરણીય કર્મ બાંધે છે, પણ જે તે પરીત જીવ વીતરાગ હોય, તે તે જ્ઞાનાવરણીય में मांधता नथी. " अपरिते बधइ " साधारण वनस्पतिय ३५ 0 अथवा જેને સંસાર અનંત હેાય છે એ જીવ જ્ઞાનાવરણીય કર્મ બાંધે જ છે. (णोपरिच-णोअपरिते न बधइ) ५२ नपरित मन नामपरीत थे। सिख ७१ ज्ञानावरणीय भनी मध ४२ नथी. ( एवं आउगवज्जाओ सत्त वि कम्मप्पयडीओ ) परीत द्वारनी अपेक्षा मायुभ सिवायनी सात भ. પ્રકૃતિના બંધનું સમસ્ત કથન જ્ઞાનાવરણીય કર્મના કથન પ્રમાણે જ સમજવું. એટલે કે પરીત જીવ આયુકર્મ સિવાયની દશનાવરણીય આદિ સાતે કર્મ પ્રકૃતિને બધ વિકલ્પ બાંધે છે, અપીરત જીવ તે તે કર્મોને બંધ અવશ્ય બાંધે છે, પણ ન પરીત અને ન અપરીત રૂપ સિદ્ધ જીવ તે કર્મોને બંધ
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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