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________________ प्रमेयमन्द्रिका टीका श० ५ उ० १ सू० ३ ऋतुविशेषादिस्वरूपनिरूपणम् ७५ - भगवानाह-'पलिओकमेण' पल्योपमेन, पल्योपमधिकृत्य 'सागरोवमेण वि' सागरोपमेणापि, सागरोपममधिकृत्यापि आलापकः 'माणियन्यो' भणितव्यः वक्तव्यः। अथ गोतमः अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी विपये प्रश्नं करोति-'जयाणं भंते !' इत्यादि । हे भदन्त ! यदा खलु 'जंबुढीवे दीवे ' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'दाहिणडे' दक्षिणार्धे 'पहमा ओसप्पिणि' प्रथमावसर्पिणी पडिवज्जइ' प्रतिपद्यते, भवति अवसर्पयति स्वस्वरूपात् स्वस्वभावाद् वा भावान् भच्यावयति इत्येवंशीला अवसर्पिणी तस्याः प्रथमो भागः प्रथमावसर्पिणी पदार्थानां हासोन्मुखत्वापादकः कालविशेष इत्यर्थः, 'तयाणं ' तदा खलु ' उत्तरले वि' उत्तरार्धेऽपि ' पढमाओसप्पिणी' के कुल अंकों की अन्तिम संख्या १९४ एकसोचोराणु अङ्क प्रमाण हो जाती है यह शीर्षप्रहेलिका का प्रमाण है। भगवान कहते हैं (पलिओव मेण) इत्यादि-पल्योपम को लेकर के, (सागरोवमेण वि) तथा सागरोपम को भी लेकर के पूर्वोक्त पद्धति के अनुसार आलापक कहना चाहिये। ___ अब गौतम अपलर्पिणी और उत्सर्पिणी काल के विषय मे प्रश्न करते हैं-(जया णं भंते) इत्यादि-हे भदन्त ! जिस समय (जंधुदीवे दीवे) जंबूद्वीप नामके मध्यजंबूद्वीप में (दाहिणड्डे) दक्षिणार्ध मे (पढमा ओसप्पिणी) प्रथम अवसर्पिणी (पडिवज्जइ) होती हैं इस अवसपिणी काल में पदार्थों को अपने स्वरूप से अथवा अपने स्वभाव से हास होता रहता है, अर्थात् इस काल का स्वभाव ही ऐसा है कि इस में प्रत्येक पदार्थ का परिणमन उत्सर्पिणी काल की अपेक्षा हासोन्मुख होता है-इसके छह भेद होते हैं-सो जब अवसर्पिणी काल का प्रथम રીતે શીષ પ્રહેલિકાના કુલ અંકની સંખ્યા ૧૪ એકસચારાણુ થાય છે. मा शत शीष प्रसि१६४ साया मांगनी या छ. (एवं पलिओवमेण, सोगरोवमेणवि) पक्ष्या५म भने सागरीषम जनी अपेक्षा ५y એવા જ અલાપકે કહેવા જોઈએ. હવે ગૌતમ સ્વામી અવસર્પિણી અને ઉત્સર્પિણ કાળના વિષયમાં પ્રશ્નો भूछे छ-" जयाण' भते!" महन्त ! न्यारे .(जबुद्दीवे दीवे) द्वीप नामना मध्य भूद्वीपमा ( दाहिणई) क्षिा भi (पढमा ओसप्पिणी) प्रथम मसपिणी (पडिवज्जइ) अण हाय छे (म मसापी मां પદાર્થોને તેમના સ્વરૂપની અપેક્ષાએ અથવા સ્વભાવની અપેક્ષાએ હાસ થતો રહે છે-એટલે કે તે કાળને સ્વભાવ જ એ છે કે તેમાં પ્રત્યેક પદાર્થનું પરિણમન ઉત્સર્પિણી કાળની અપેક્ષાએ હાસોન્મુખ હોય છે, તેના ૬ છ ભેદ હાય છે) કે જ્યારે અવસર્પિણી કાળના પહેલા ભાગને દક્ષિણમાં પ્રારંભ
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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