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________________ प्रमेयचन्द्रिकाटी ० श० ६ ० ३ ० ४ कर्मस्थित निरूपणम् ८९५ स्यात् कदाचित् ज्ञानावरणीयं कर्म बध्नाति स्याद - कदाचित् न वध्नाति, अयं भाव. - न स्त्री न पुरुषः, न नपुंसकः वेदोदयरहितः अनिवृत्तिवादरमूक्ष्मसंपरायाख्यनवम-दशम-गुणस्थानवर्ती भवति, तत्र चानिवृत्तिवादरसं पराय - सुक्ष्मसंपराय जीव सप्तविध-पविधकर्मबन्धकतया ज्ञानावरणीयस्य बन्धकौ भवतः, उपशान्तमोहादारभ्यायोगिके व लिपर्यन्तगुणस्थानवर्ती जीवस्तु एकविध - नपुंसओ) न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक है वह (सिय बंधह, सिय णो बंध) कदाचित् इस कर्मका बंध करता भी है और कदाचित् नहीं भी करता है । तात्पर्य कहने का यह है कि जो जीव वेद के उदय से रहित होता है- अर्थात् अङ्गोपाङ्गनाम कर्म के उदय से जीव के शरीर में स्त्री का आकार, पुरुष के शरीर में पुरुष का आकार और नपुंसक के शरीर में नपुंसक का ओकार भले ही बना हुआ हो- परन्तु वेद संबंधी विकार परिणति उस आत्मामें न हो तो ऐसा जीव वेदोदय से रहित माना जाता है इसी का नाम (नो स्त्री, नो पुरुष और न नपुंसक) इस रूप से यहां प्रकट किया गया है। ऐसा जीव नौवें अनिवृत्ति बादर और दशवें सूक्ष्मसांपराय इन दो गुणस्थानों में रहने वाला होता है । इन दो गुणस्थानों वाला वह नो स्त्री, नो पुरुष और नो नपुंसक जीव ज्ञानावरणीय कर्म का बंधक होता है क्यों कि वह सात प्रकार के यो ६ प्रकार के कर्म का बंधक बाँधने वाला कहा गया है। तथा ग्यारहवें पुरुष होय छे " पुरुष डोती होतो नथी ते ( सिय बधइ, छे भने उयारे नथी उरते. " नो स्त्री होय छे "- स्त्री होतो नथी, "नो नथी, मने "नो नयुं स होय छे " - नपुंस सिय णो बंधइ ) ४यारे४ मा उनी अध આ કથનના ભાવાથ નીચે પ્રમાણે છે—જે જીવ વેદનાના યથી રહિત ડાય છે, એટલે કે મગાપાંગ નામકમના ઉદયથી સ્ત્રીના શરીરમાં ના આકાર, પુરુષના શરીરમાં પુરુષના આકાર અને નપુંસકના શરીરમાં નપુંસકના આકાર ભલે ખનેલા હાય, પરંતુ વેદ સંબંધી પરિણતિ તે આત્મામાં ન હોય તે એવા જીવને વેદોદયથી રહિત માનવામાં આવે છે, અને એવા જીવને જ अहीं " नो श्री, नो पुरुष भने नो नपुंस" ३ये मताववामां आव्यो छे. એવે જીવ નવમાં અનિવૃત્તિ બાદર અને દશમાં સૂક્ષ્મ સોંપાય, એ એ ગુણુસ્થાનામાં રહેનારા હાય છે. આ બે ગુરુસ્થાનેાવાળા ના સ્રી, ના પુરુષ અને ના નપુંસક જીવ જ્ઞાનાવરણીય કમ બાંધે છે, કારણ કે તેને સાત અથવા તા છ પ્રકારના કર્માંના ધક ( ખાંધનાર ) કહ્યો છે. પરંતુ અગિયારમાં
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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