SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 797
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ arades ७७६ 1 पूर्वेण सम्बन्धः ' णो संचार तीसे अहिगरणीए केई अहावायरे पोराले परिसाडित्तए 'नो शक्नोति नो पारयति, तस्या अधिकरण्याः कानपि यथावादरान् यथास्थूलान् पुद्गलान् परिशाटयितुं पृथकर्तुम् अधिकरण्याः स्थूलान् पुद्गलान् लोहकणरूपान् पृथक्कृत्वा ध्यंरायितुं समर्थो न भवतीति भावः । एतदेव भगवान् दान्तिके योजयति- 'एवामेव गोयमा | नेरइयाणं पाबाई कम्माई गाढीकयाई' हे गौतम ! एवमेव महता आघातेन परिहन्यमानाया अपि अधिकरण्याः स्थूलपुद् गलवदेव नैरथिकाणां पापानि कर्माणि गाढीकृतानि दृढतया अत्मप्रदेशैः सह सं वद्धानि यावत्- चिक्कणीकृतानि अतिस्निग्धतामापादितानि, श्लिष्टीकृतानि, किन्तु लगातार वह उसे कूटता जाये तो भी वह (णी संचाएइ तीसे अहिगरणीए केई अहाबाधरे पोग्गले परिसाडित्तए) इस स्थिति में उस एरण के यथाचादर पुलों को- लोह के कणों को उससे अलग करके नष्ट करने के लिये समर्थ नहीं होता है, ( एवामेव गोयमा ) इसी तरह से हे गौतम! (नेरइयाणं पाचाई कम्माई ) नारक जीवों के जो पापरूप फर्म होते हैं ये (गाढीकयाई जाव णो पज्जवसाणाई भवंति ) गाढीकृत होते हैं यावत् वे नारक जीव महापर्यवसानवाले नहीं होते हैं - अर्थात् कहने का तात्पर्य ऐसा है कि जिस प्रकार से बड़ेभारी आघातों द्वारा बार २ कूटे जाने पर भी एरण के स्थूल पुद्गल उससे पृथक् होकर नष्ट नहीं किये जा सकते है, उसी प्रकार से नैरयिक जीवों के पापकर्म भी जो कि आत्मप्रदेशों के साथ गोढतररूप से संबद्ध होते हैं, यावत्- चिक्कणीकृत - अतिस्निग्धता को लिये हुए होते हैं श्लिष्टीकृत एवं खिलीभूत सगातार मेरथ पर लेरथी धा भारवा छतां पयु ( णो संचाएइ तीसे अहिगरणीए फेद अहादायरे पागले पडिखाडित्तर ) ते खेरशुना स्थूस युगसोने ( લેાઢાના કણેાને ) તેનાથી અલગ પાડીને તેમનેા નાશ કરવાને તે શક્તિમાન थता गयी. " एवामेव गोयमा " हे गौतम | ४ प्रमाणे " नेरइयाणं पावई कमाई' नार भवानां पाप३य भी साथ छे " गाढीकयाई जाव णो पज्जवलाणाई भवंति " ते गाढीकृत होय छे, तेथी ते नार को मायर्यव સાનવાળા (કર્માના સત્રથા નાશ કરનારા) હાતા નથી. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે જેવી રીતે એરણ ઉપર ઘણુ વડે ઘણા જોરથી વારંવાર ઘા મારવા છતાં એરણનાં સ્થૂળ પુદ્ગલાને એરણમાંથી અલગ પાડીને તેમના નાશ કરી શકાતા નથી, એવી જ રીતે નારક જીવેનાં પાપકર્મી કે જે આત્મપ્રદેશેાની સાથે દૃઢતર રૂપે સબદ્ધ હોય છે, જે ચીકણાં ડાય છે, જે એકમેકની સાથે શ્ર્લિષ્ટી કૃત ( સજ્જડ રીતે ચાંટેલા) ડાય છે અને જે નિકાચિત અથવા ખિલીભૂત "
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy