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________________ ७२४ भगवती गगनखण्डो लोकपदवाच्यः, इति सत्यं किम् ? ततः उक्तरीत्या लोकस्वरूपाऽभिधायकपार्श्वजिनवचनसंस्मरणद्वारा भगवान् स्ववचनं समर्थितवानिति ' स्थविरा आहुः 'हंता, भगवं' हे भदन्त ! हन्त, सत्यं भवता यद् लोकरवरूपं प्रतिपादित तत् सर्वथा सत्यमेवेत्यर्थः। भगवानाह-' से तेणटेणं अज्जो! एवं बुच्चइ-असंखेज्जे तं चेव' हे आर्याः! स्थविराः ! तत् तेनार्थेन तस्माद्धेतोः एवम् उक्तरीत्या उच्यते-असंख्येये लोके तदेव पूर्ववदेव अनन्तानि रात्रिंदिवानि परीतानि च उदपद्यन्त ' इत्यादि बोध्यम् 'तप्पभिई च णं ते पासावच्चेज्जा थेरा भगवंतो समणं भगवं महावीरं 'सयन्नू से लोए) जो प्रमाण के द्वारा विलोकित किया जा सके उसका नाम लोक है यह लोक गगन का पंचास्तिकाय रूप एक खण्ड है कहो आर्यों यह बात सत्य है न ? इस प्रकार पार्श्वनाथ भगवान के लोकस्वरूप के अभिधायक वचनों को याद कराकर भगवान् ने अपने वचनों को समर्थन किया तव स्थविरों ने (हंता भगवं) हां भगवान् । ऐसा ही हैअर्थात् आपने जो लोक के स्वरूप का प्रतिपादन किया है वह सर्वथा सत्य ही है ऐसा कहा-तब प्रभु ने उनसे (से तेणटेणं अजो एवं बुच्चइ असंखेज्जे तं चेव ) ऐसा कहा कि हे आर्यो ! इसी कारण मैंने ऐसा कहा है कि असंख्यात लोक में असंख्यात और अनंत रातदिन उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं और आगे भी उत्पन्न होते रहेंगे इत्यादि सय कथन यहांपर पूर्वोक्त रूप से लगालेना चाहिये । (तप्पभिई च णं ते पासावच्चेज्जा थेरा भगवंतो समणं भगवं महावीरं सव्वन्नू सव्वदरिसी વિવેકી શકાય (જોઈ શકાય) છે, તેનું નામ જ લેક છે. આ લોક ગગનને (આકાશને ) પંચાસ્તિકાય રૂપ એક ખંડ છે. “કહા આર્ય! આ વાત સત્ય છે ને?” આ પ્રમાણે પાર્શ્વનાથ ભગવાનના લેક–વરૂપનું પ્રતિપાદન કરનારાં વચનેને યાદ કરાવીને જ્યારે ભગવાન મહાવીરે પિતાનાં વચનનું સમર્થન यु, त्यारे स्थविशय ह्यु “हता भगव" , ससवान ! मे १ छे. એટલે કે લેકના સ્વરૂપનું આપે જે પ્રતિપાદન કર્યું છે તે સર્વથા સત્ય છે. त्यारे महावीर प्रभुमे तभने यु-(से तेणद्वेण अज्जो! एवं वुच्चइ, असंखेज त'चेव ) 3 माय! २णे में प्रयु छ , मस-यात शिवार લેમાં અનંત અને અસંખ્યાત રાત્રિદિવસ ઉત્પન્ન થયાં છે, ઉત્પન્ન થાય છે અને ભવિષ્યમાં પણ ઉત્પન્ન થશે, ઈત્યાદિ સમસ્ત પૂર્વોક્ત કથન અહીં ગ્રહણ કરવું ___"तभिई च ण ते पासावच्चेज्जा थेरा भगवतो समण भगव महावीर सव्वन्नू सव्वदरिसी त्ति पच्चभिजाणति " मा प्रभारी श्रभार सगवान भड।
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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