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________________ प्रमेयचन्द्रिका टी० ० ५ ७०९ सू०४ पावापत्यीय-महावीरयोर्वक्तव्यता ७२१ -' से केणडेणं जाव-विगछिस्संति वा ? ' स्थविराः पृच्छन्ति-हे भदन्त ! तत् केनार्थेन यावत्-एव मुच्यते असंख्यातपदेशात्मके लोके-अनन्तानि रात्रिदिवानि उदपद्यन्त वा, उत्पधन्ते वा, उत्पत्स्यन्ते वा, व्यगछन् वा, विगच्छन्ति वा, विगमिष्यन्ति वा, परितानि,-परिमितानि रात्रिंदिवानि उदपद्यन्त वा, उत्पधन्ते वा, उत्पत्स्यन्ते वा, व्यगच्छन् वा, विगच्छन्ति वा, विगमिष्यन्ति वा, भगवानाह-से गुणं भे अज्जो पासेणं अरहया पुरिसादाणीएणं सासए लोए घुइए' हे आर्याः । स्थविराः ! तद् नूनं भवतां गुरुणा पार्श्वन अर्हता पार्श्वनाथेन प्रभुणा पुरुपादानीयेन पुरुषैः पुरुपाणां मध्ये वा आदानीयेन उपादेयेन प्रामाणिकरूप से सूत्रकार स्पष्ट करते हैं-(से केणठेणं जाव विगच्छिस्संति वा ?) श्रमण भगवान महावीर से स्थविर पूछ रहे हैं-हे भदन्त ! आप ऐसा किस कारण से कह रहे हैं कि असंख्यात प्रदेशात्मक लोक में अनन्त रोतदिन उत्पन्न हुए, उत्पन्न होते हैं, और आगे भी उत्पन्न होंगे ? इसी तरह से अनन्त रातदिन नष्ट हुए, नष्ट होते हैं और आगे भी नष्ट होंगे तथा परीत रातदिन इस असंख्यात प्रदेशात्मक लोक में उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं और आगे भी उत्पन्न होंगे? इसी तरह से वे यहां नष्ट हुए हैं, नष्ट होते हैं, और आगे भी नष्ट होंगे ! इसके उत्तर में प्रभुने (से गृणं भे अजो! पासे गं अरहया पुरिसोदाणीएणं सासए लोए वुइए) कहा, हे आर्यो! आपके गुरु अरिहंत पार्श्वनाथ ने जो कि पुरुषों के द्वारा अथवा पुरुषों के बीच में प्रामाणिक होने के कारण ग्राह्य-उपोदेय माने गये हैं लोक को शाश्वत-सर्वदा स्थायी कहा हैं मे पातन सूत्ररे मडी प्रश्नोत्त२३चे स्पष्ट ४३री छ-(से केणट्रेण जावविगच्छिरसति वा ?) स्थविरे। लगवान महावीरने पूछे छे ? मा५ । २२ એવું કહે છે કે અસંખ્યાત પ્રદેશવાળા લેકમાં અનંત રાત્રિદિવસ ઉત્પન્ન થયાં છે, વર્તમાનમાં સંખ્યાત ઉત્પન્ન થાય છે, અને ભવિષ્યમાં પણ ઉત્પન્ન થતાં રહેશે ? એજ પ્રમાણે રાત્રિદિન નષ્ટ થયાં છે, નષ્ટ થાય છે, અને નષ્ટ થશે? તથા આ અસંખ્યાત પ્રદેશવાળા લેકમાં પરીત (નિયત) રાત્રિદિવસ ઉત્પન્ન થયાં છે, ઉત્પન્ન થાય છે અને ઉત્પન્ન થશે ? એજ પ્રમાણે ત્યાં પરીત રાત્રિદિવસો નષ્ટ થયાં છે, નષ્ટ થાય છે અને નષ્ટ થશે ? तन। पास मापता महावार प्रभु ४ छ-(से गूण मे अजो ! पासेणं अरहया पुरिसादाणीएणं सासए लोए वुइए) 8 माया ! मायना शु३ અહંત પાર્શ્વનાથ કે જેઓને પુરૂષો દ્વારા ગ્રાહ્ય-ઉપાદેય માનવામાં આવેલા છે, તેમણે આ લોકને શાશ્વત (નિત્ય કાયમને માટે જેનું અસ્તિત્વ રહેવાનું भ ९१
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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