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________________ ७१४ भगवतीचे वरवग्रिहिके, उपरि अमृदङ्गाकारसंस्थिते अनन्ता जीवघना उत्पद्य उत्पञ्च निलीयन्ते,परीताः जीवधनाः, उत्पध, उत्पद्य निलीयन्ते, तद् नूनं भूतः, उत्पन्नः, विगतः, परिणतश्च, जी वैलॊक्यते, प्रलोक्यते-'यो लोक्यते स लोकः ?'। इन्त मज्झे वरवइरविग्गहियंसि, उप्पि उद्धमुइंगाकारसंठियंसि अणंता जीवघणा उप्पज्जित्ता उपज्जित्ता निलीयंति-परीता जीवघणा उप्पज्जित्ता उपजित्ता निलीयंति) इस प्रकार के इस शाश्वत,अनादि,अनन्त,परिमित, परिपृत्त, नीचे विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त, ऊपर विशाल, नीचे पलंक के आकार जैसे, बीच में वरवज्र के जैसे शरीर वाले, और ऊपर खड़े हुए मृदंग के आकार जैसे लोक में अनन्त जीवघन उत्पन्न हो होकर नष्ट होते रहते हैं, तथा नियत-असंख्य जीवधन उत्पन्न होकर नष्ट हो जाते हैं (से पूर्ण भूए उप्पन्ने विगए, परिणए, अजीवेहिं लोकइ, पलोकइ, "जे लोकह से लोए" ऐसा वह लोक भूत-सद्भूतरूप है, उत्पन्न हैधर्मयुक्त है, विनाश व्यधर्म से युक्त है, पर्यायान्तर से आपन्न है कारण कि वह लोक अजीवों द्वारा निश्चित किया जाना है विनिश्चित किया जाता है इसी कारण उसका नाम (लोक) ऐसा हुआ है क्यों कि (लोक्यते असौ लोकः" इस व्युत्पत्ति के अनुसार यह प्रमाण से निश्चित किया गया है-अर्थात् जताया गया है। (हंता, भगवं) हां मज्झे वरवहरविग्गहियंसि, उपि उद्धमुइंगाकारसठियासि अणता जीवघणा उपज्जित्ता उप्पज्जित्ता निलीयति-परिता जीवघणा उप्पज्जित्ता उप्पग्जिता निलीयंति) આ પ્રકારના શાશ્વત, અનાદિ, અનંત, પરિમિત, પરિવૃત, (અલકથી धराये), नीथी विस्ती, भध्यम सी', परथी विश, नाये ५० ગના આકાર જેવા, વચ્ચે ઉત્તમ વજાના જેવા અને ઉપરથી ઉર્ધ્વમુખવાળા મૃદંગના આકાર જેવા આ લોકમાં અનંત જીવદન (જીવરાશિ) ઉત્પન્ન થઈ થઈને નાશ પામ્યા કરે છે, તથા નિયત (પરિમિત) જીવઘન ઉત્પન્ન થઈ થઈને नष्ट थया ४२ छ. ( से गूण भूए, उप्पन्ने-विगए, परिणए, अजीवेहि लोकइ, पलोकइ, जे लोकह से लोए) aals सन सत्ता यम ना योगथी सा. ભૂત રૂપ છે, ઉત્પાદ ધર્મયુકત છે, અને વ્યય ધર્મથી યુક્ત છે, પર્યાયાન્તરને પ્રાપ્ત કરનાર છે. અજી દ્વારા તે લેકને નિશ્ચય કરી શકાય છે, અને પ્રકર્ષ નિશ્ચય કરી શકાય છે. તે કારણે તેનું નામ “લેક' પડયું છે. કારણ કે " लोक्यते असौ लोकः " मा व्युत्पत्ति अनुसार मापात प्रभार द्वारा निश्चित श्ये छे-अ वा ते वात प्रतिपादन रायुं छे. (दंवा भगव),
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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