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________________ ' प्रमैयन्द्रिमा टी० श० ५ ० ८ ० ३ जोधादिवृद्धिधान्यादिनिरूपणम् ६७५ सापचयाश्च भवन्ति, ' सेसा सव्वे सोचचया वि, सावचया वि, सोवचय-सावचयावि, निरुवचयनिरवचया वि, जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेणं आवलियाए अखेज्जइभाग ' शेषाः उपर्युक्तातिरिक्ताः सर्वे द्वीन्द्रियादयो जीवाः सोपचयाः अपि, सापचयाः अपि, सोपचय-सापचया अपि, निरुपचय-निरपचयाः अपि जघन्येन एकं समयम् , उत्कर्षेण आवलिकायाः असंख्येयभागम् , असंख्यातकालपर्यन्तम् तिष्ठन्ति, किन्तु 'अवढिएहिं वकंतिकालो भाणियन्यो ' अवस्थितेषु निरुपचय-निरपचयरूपेषु व्युत्क्रान्तिकालो विरहकालो भणितव्यः वक्तव्यः एकेन्द्रियाणां दण्डकपञ्चकं विहाय शेषेषु द्वीन्द्रियादारभ्य वैमानिकपर्यन्तेषु एकोनविंशतिदण्डकेषु विरहकालमाश्रित्यावस्थितत्वं बोध्यम् , इति भावः । चय सहित होते हैं । (सेला सव्वे सोवचया वि, सावचया वि सोवचय सावचया वि, निरुवचय-निरवचया वि) तथा उपर्युक्त जीवों से अतिरिक्त और जो दीन्द्रियादिक जीव हैं वे सब उपचय सहित भी होते हैं, अपचय सहितभी होते हैं, उपचय अपचय दोनों से भी एक साथ युक्त होते हैं और उपचय अपचय इन दोनों से रहित भी होते हैं। उपचय आदि से सहित या रहित होने का काल इन का (जहण्णेणं एक समयं) जघन्य से एक समय का है और (उक्कोसेणं) उत्कृष्ट से (आवलियाए असंखेजहभाग) आवलिका का असंख्यातवां भाग है। किन्तु (अपट्टिएहिं वकंतिकालो भाणियब्यो) निरुपचय निरपचयरूप अवस्थितों में व्युकान्तिकाल-विरहकाल-भणितव्य है-अर्थात् एकेन्द्रियों के पांचदण्डकों को छोड़कर शेष द्वीन्द्रिय से लेकर वैमानिक तकके १९ वया सावचया सव्वद्ध ) तथा समस्त भेन्द्रिय ७ मा अMi Gपयय स५५५ सहित डाय छे. (सेबा सव्वे सोचया वि, सावचया वि, सोवचयसावचया वि, निरुत्रचय-निरवचया वि) माना था । (मन्द्रय सिपाચના બધાં છે) ઉપચયવાળાં પણ હોય છે, અપચયવાળાં પણ હોય છે, ઉપચય-અપચય બજેથી પણ એક સાથે યુક્ત હોય છે, અને ઉપચય-અપચય બનેથી રહિત પણ હોય છે. તેમને ઉપચય આદિથી યુક્ત અથવા રહિત २in am "जहण्णण एक समय" माछामा मेछ। मे समयमा मन (उकोसेण आवलियाए असंखेम्जद भाग) पधारेभा पधारे मातिाना मध्यातमा म प्रमाण हो छे. परंतु (अद्विएहिं वक तिकालो भाणि. यो) नि३५यय-नि२५यय ३५ म स्थानमा व्युति -वि२8 - કહેવા જોઈએ. એટલે કે એકેન્દ્રિના પાંચ દંડકો સિવાયના બાકીના ૧૯ દડકોમાં (દ્વિન્દ્રિયેથી વૈમાનિક પર્યન્તના ૧૯ દંડકમાં) વિરહ--કાળને આધારે અવસિવ સમજવું.
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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