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________________ દર भगवती सूत्रे वर्धते, हीयन्ते इति भणितत्र्याः वक्तव्याः, 'णवरं अबडिएस इमं णाणतं तं जहा - रचणष्पमाए पुढवीए अडयालीसं मुहुत्ता, नवरं विशेषः पुनर्वृद्धिहासापेक्षया अवस्थितेषु वृद्धिहान्यभावात्मकावस्थितिषु इदं वक्ष्यमाणं नानात्वम् एतावानेव विशेषः, तद्यथा - रत्नप्रभायां पृथिव्याम् अष्टचत्वारिंशर्त-मुहूर्तान्, अष्टचत्वारिंशन्मुहूर्त पर्यन्तं नैरयिकाणाम् अवस्थितत्व वोध्यमित्यर्थः, अयं भावः रत्नप्रभादिषु यो यत्रोत्पादोद्वर्तनविरहकालयतुर्विंशतिमुहूर्तादिको व्युत्क्रान्तिपदे प्रज्ञापनासूत्रे व्युत्क्रान्तिनामके पष्ठे पदे प्रतिपादितः, स तत्र रत्नप्रभा दिपृथिवीषु तेपां नैरयिकाणां तत्तुल्यस्य चतुर्विंशतिमुहूर्तात्मकस्य उत्पादोद्वर्तनकालस्य संमेलनात् द्विगुणितो भूत्वा अष्टचत्वारिंशन्मुहूर्ता दिषोऽवस्थितकालो भवति, विरहकालच प्रतिपदमवस्थानकालार्धभूतः स्वयमूहनीयः तथा - 'सकरप्पभाए जीवों की एक परिमाणता होने की वजह से नारक जीवों में वृद्धि और हानि का अभाव रहता है। ( एवं सप्तसु वि पुढवी वडूंति, हायंति effort ) इसी तरह से समुच्चय नैरयिकोंकी वृद्धि और हानि की तरह से ही - सातों ही रत्नप्रभा आदि पृथिवियों में नारकजीव बढते हैं, घटते हैं ऐसा जानना चाहिये । ( णवरं अवट्ठिएस इमं णाणत्तं ) परन्तु अवस्थित अवस्था में जो भेद है-अन्तर है- वह इस प्रकार से ( रयण - भाए पुढवीए अडयालीसं मुहुत्ता ) रत्नप्रभा पृथिवी में नारक जीवों का अवस्थान काल ४८ मुहूर्त का है- सो इसका तात्पर्य यह है कि रत्नप्रभा आदि पृथिवियों में जो जहां व्युत्क्रान्तिपद में अर्थात् प्रज्ञापनासूत्र में व्युत्क्रान्ति नाम के पद में उत्पाद, मरण और विरहकाल चौवीस मुहूर्त का कहा गया है सो वहाँ रत्नप्रभा आदि पृथिवियों में उन સરખુ જ રહેતું ઢાવાથી નારક ( ૨૪ મુત સુધી નારક જીવેાનું પ્રમાણ એક लेवामां वृद्धि भने हानिन। अलाव रहे छे. एव ं सत्तसु वि पुढवीसु वड्ढति, हाति भाणियव्वा ) भा रीते मघां नारानी वृद्धि भने हानि थती होय छे. એટલે કે રત્નપ્રભા આદિ સાતે પૃથ્વીએમાં નારક જીવાની વૃદ્ધિ અને હાનિત थाय छे शोभ सभन्नवु. ( णवर' अत्रट्ठिएसु इम णाणत्तं ) पशु अवस्थान अणभां नीचे भ्रभाषे तावत छे. ( रयणप्पभाए पुढवीए अडयालीसं मुहुचा ) रत्नअला પૃથ્વીમાં નારક જીવાને અવસ્થાન કાળ ૪૮ મુહૂતના છે, તેનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે—રત્નપ્રભા આદિ પૃથ્વીએમાં ( નરકામાં ) ઉત્પાદ, મરણુ અને વિરહેકાળ ૨૪ મુહૂર્તને કહ્યો છે. ( વ્યુત્ક્રાન્તિ પમાં એટલે કે પ્રજ્ઞાપના સૂત્રમાં જ્યુત્ક્રાન્તિ નામના પટ્ટમાં આ પ્રમાણ આપેલું છે) તે રત્નપ્રભા આતિ પૃથ્વી
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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