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________________ भगवती सूत्र ૧૦૨ सम्मदिडी उबवनगा ' तत्र तेषां मध्ये खलु ये ते अमाथिसम्म गृदृष्टयुपपन्नकाः 'तेणं जाणंति, पासंति' ते खलु अमाथिसम्यग्टयुपपन्नंका वैमानिकाः जानन्ति पश्यन्ति, केवलिनः प्रकृष्टमनो वचनं च । गौतमस्तत्र कारणं पृच्छति-से केण एवं बुच्चइ - अमाई सम्मदिट्ठी जाव- पासंति ? ' हे भदन्त । तत् केनार्थेन एवम् उच्यते यत् अमाथिसम्यग्दृष्टयः यावत् पश्यन्तीति ? यावत्पदेन ' जानन्ती -त्यस्य संग्रहः । भगवान् तत्र हेतुं पतिपादयति- ' गोयमा ! अमाई सम्मदिट्ठी दुबिहा पण्णत्ता' हे गौतम! अमाथिसम्यग्दृष्टयो वैमानिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः'अनंतत्रवनगा य, परंपरोव वनगा या ' अनन्तरोपपनकाश्च परम्परोपयनकाश्र > नहीं देखते हैं | और ' तत्थ णं जे ते अमाई सम्मदिट्ठी उववन्नगा जो अमाथी सम्यग्वष्टरूप से उत्पन्न वैमानिक देव हैं वे केवल ज्ञानी के प्रकृष्ट मन और वचन को जानते और देखते हैं । इस विषय में कारण को जानने की इच्छा से गौतम पूछते हैं कि 'सेकेण्डेणं एवं बुच्चइ - अमाई सम्मदिट्ठी जाव पासंति ' हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि जो अमायी सम्यग्दृष्टि वैमानिक देव हैं वे यावत् देखते हैं । यहां यावत्पद से " जानंति " इस पद का संग्रह हुआ है । उत्तर में प्रभु गौतम से कहते हैं ' गोयमा ' हे गौतम! ' अमाई सम्मदिट्ठी दुविहो पण्णत्ता ' जो अमाग्री सम्यग्दृष्टि वैमानिक देव हैंवे भी दो प्रकार के कहे गये हैं- 'अनंतशेववन्नग्गा य, परंपरोववन्नगा य एक अनन्तरोपपन्नक और दूसरे परम्प विपन्नक, इनमें जो अनन्तरोप ते अमाई सम्मदिट्ठी उववन्नगा इत्यादि) पशु अभायी सभ्य दृष्टि३ये उत्पन्न થયેલા વૈમાનિક ધ્રુવે કેવળજ્ઞાનીના પ્રકૃષ્ટ મન અને વચનને જાણે છે भने हे छे. " હવે તેનું કારણ જાણવાને માટે ગૌતમ સ્વામી મહાવીર પ્રભુને આ પ્રશ્ન पूछे छे - ( से केणट्टेण एवं चुच्चइ - अमाई सम्मदिट्ठी जाव पासंति ? ) डे लहन्त ! આપ શા કારણે એવુ' કહેા છે કે અમાયી સમ્યક્ દૃષ્ટિ વૈમાનિક દેવા જ કેવળજ્ઞાનીના પ્રકૃષ્ટ મન અને વચનને જાણી શકે છે અને દેખી શકે છે ? तेन। उत्तर भापता भहावीर अभु हे छे-" गोयमा !” हे गौतम ! ( अमाई सम्मदिडी दुब्रिहा पण्णत्ता ) अभायी अभ्यग्दृष्टि वैमानि देवाना पशु मे लेह पडे छे" अनंतशेववन्नगा य, परंपरोववन्नगो य " ( 1 ) अनन्तरेपियन्न અને (૨) પરસ્પર પપન્નક તેમના અનન્તરાપપન્નક સભ્યતૃષ્ટિ વૈમાનિક દેવા ‘
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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