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________________ प्रमियचन्द्रिका टोका ० ५ उ०४ सू० ४ अतिमुक्तस्वरूपनिरूपणम् मम नाविक इव नायम् अयं प्रतिग्रहकम् उदके कृत्ला, प्रवाहयन्, प्रवाहयन् अमि रमते तं च स्थविगः अद्राक्षुः, यसैव श्रमणों भगवान महावीरस्तचैव उपागच्छन्ति उपागम्य एवमवादिषुः-एवं खलु देवानुपियाणाम् अन्तेवासी अतिमुक्ती नाम कुमारश्रमणः, स भदन्त ? अतिमुक्तः कुमारश्रमणः कतिभिः भवग्रहणैः सेत्स्यति; यावत्-अन्तं करिष्यति ? आर्याः ! इति श्रमणो भगवान् महावीरस्तान् स्थविरान् बांधी। (बंधित्ता णावियां मे, णाविया मे नविओ विव णावमयं पंडिगंगडंग उदगंसि कंटूडें पव्वहमाणे अभिरमई) बांधकर फिर उन्होंने यह . मेरी नौका है, यह मेरी नौका हैं इस प्रकारं नाविक की तरह अपने पात्र को नौका के जैसा मान कर पानी में तैरीना प्रारंभ किया। इस तरहं अपने पात्र को वार २ जेल में तैराते हुए वे वहां पर खेलने लंगे। (तेच थेरों अदखु जेणेवे समणे भगवं महवीरे तेणेवं उवांगच्छंति) पानी में पात्रं को नौका की तरह तैरते हुए उन कुमार श्रमणे अतिः तंक को स्थविरों ने देख। देखकर फिर वे जहां पर श्रमण भगवान महावीर थे वहां पर आये। (उवागच्छित्ता एवं वयासी ) वहां जाकरें उन्हों ने उनसे ऐसा कहा-पूछा-(एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी अइमुत्ते गोमं कुमारसमणे, से णं भंते ! अइमुक्ते कुमारसमणे काहिं भैवग्गणेहि सिज्झिहिह जाव अंतं करेहिइ) हे देवानुप्रिय ? भगवान् अतिमुक्त कुमार श्रमण नामके जो आपके अन्तेवासी हैं, सो हे भर्दन्त ! वे अतिमुक्त कुमारश्रमण कितने भवों को करके सिद्ध होंगें यावत् तेभर तेना माही भाटीनी ७ माधी. (बधित्ता णाविया में, णाविया में नाविओं विव णावमय पंडिग्गहगं उदगंसि क पवाहमाणे फवाहमाणे अभिरमह) પાળ બાંધીને પાણીમાં તેમનું પાત્ર મૂક્યુ અને “આ મારી નવડી છે” એમ કહેતાં નાવિકની જેમ પોતાની પાત્રને નાવડી જેવું માનીને પાણીમાં diqा भांडयुं. २ री पाताना पात्रने (तं च थेरा अदक्खु जेणेव संमणे भगव महावीरे तेणेव उवागच्छंति ) मा शत पाणीमा पाताना पात्रने तरायता તે અતિમુક્તક બાળમુનિને રવિદોએ જોયા તેઓ જ્યાં શ્રમણ ભગવાન મહાपार विसरत तi त्यो माव्या. ( उवांगच्छित्ता एवं बयासी ) त्यां ने तमा मडावीर प्रभुने मा प्रमाणे प्रश्न पूछया- (एवं खलु देवाणुपियाणं अंतेवीसी अइमुत्ते णाभ कुमारसमणे, से गं भते । अहमुत्ते कुमारसमणे काहि भेवग्गवणेहि सिज्झिहिद जाव अंत करेहिह) हेवानु प्रिय ! मतिभुत नामना જે બાળમુભિ આપના શિષ્ય છે, તે હે ભદન્ત ! કેટલા ભવે કરીને સિંદ્ધ પર્વ પામશે અને સમસ્ત દુઃખના અન્તર્તા થશે ?
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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