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________________ ___ भंगवती योनि संहरति, अनेनोक्तचतुर्थभङ्गोऽपास्तः, अथ परिशेषाद् उक्ततृतीयभङ्गं स्त्रीकुर्वन्नाह-'परामुसिय, परामुसिय अव्यावाहेणं अव्यावाहं जोणिओ गम्भं साहरई' अपितु परामृश्य परामृश्य निजहस्तेन गर्भ स्पृष्ट्वा स्पृष्ट्वा मुहुः संस्पृश्य इत्यर्थः अव्यावाधेन अव्यावाधं समुखं यथा गभस्य पीडा न भवेत् तथा योनितो योनिद्वारा उदराद् गर्भ निष्कास्य संहरति गर्भाशयान्तरे प्रवेशयतीति। तस्य गर्म संहरणप्रकार उक्तः । यच्चेह योनिको गर्भनिष्कासनं प्रोक्तं तत् लोकव्यवहारान वृत्या विज्ञेयम् लोके हि 'निष्पन्नोऽनिष्पन्नो वा गर्भो योनिद्वारेणैव निर्गच्छतीति प्रसिद्धिः। अयं च गर्भसंहरणे देवस्या चारः प्रोक्तः। अथ तस्य सामथ्यं पतिउसे उदरान्तर में प्रवेश नहीं कराता है । इसी तरह से 'नो जोणिओ जोणिं साहरइ' पोठ द्वारो चतुर्थ भंग का निषेध किया है अर्थात् योनिद्वारा गर्भ को निकाल कर योनिद्वारा ही वह उसे उदरान्तर में नहीं पहुंचाता है किन्तु (परामुसिय परामुसिय अव्वावाहेणं अव्वावाहं जोणिओ गम्भ साहरइ) वह अपने हाथ से गर्भ को छू छू करके उसे जिस तरह से पीडा न हो इस तरह से योनि द्वारा बाहर निकालकर दसरे गर्भाशय में स्थापित कर देता है इस तरह यह तृतीयभङ्ग यहां स्वीकृत किया गया है। जो इस प्रकार से योनि द्वारा गर्भनिष्काशन प्रकट किया है वह लोकव्यवहार की अनुवृत्ति से कहा है ऐसा जानना चाहिये। लोक में ऐसा ही. व्यवहार प्रसिद्ध है कि गर्भ, चाहे वह निष्पन्न हो चुका हो-या निष्पन्न नहीं हुआ हो योनिद्वार से ही निकलता है । यह गर्भ के संहरण में देव का आचार कहा है अब उसकी नथी. मा रीती न पशु नसरात्मण भणे छ. "नो जोणिओ जोणि साहरह" योनि मन मार दीन योनिद्वारा भी शाशयमा તેને મૂકતા નથી. આ રીતે ચોથા ભંગનો પણ નકારાત્મક જવાબ મળે છે. " परामुसिय परामुसिय अव्वाबाहेण अव्वावाह जोणिओ गर्भ साहरई" ते तेना डाय 43 ना २५ ४ ४शन, ते पाय પ્રકારની પીડા ન પહોંચે એવી રીતે, નિદ્વારા ગર્ભને બહાર કાઢીને બીજી સ્ત્રીના ગભૉશયમાં તેને મૂકે છે. આ રીતે ત્રીજા ભંગને અહીં સ્વીકાર થયે છે. નિદ્વાર ગર્ભના સંહરણની જે વાત અહીં પ્રકટ કરવામાં આવી છે તે લેકવ્યવહાર અનુસાર કરવામાં આવેલ છે. ગર્ભનું હરિગમેષી દેવવડે કેવી રીતે સંકરણ થાય છે એ બતાવ્યા પછી તે દેવનું સામર્થ્ય કેટલું છે તે બતાથવાને માટે સૂત્રકારે નીચેના પ્રકારે આપ્યા છે.
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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