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________________ भगवती सूत्रे खलादिनाऽऽकुट्टनद्वारा सम्यक् परिष्कृतानि वह्निना परिपक्वानि च भूत्वा अग्निजीवशरीराणि इत्युच्यन्ते इत्याशयः । अथवा अत्र शस्त्रपदेन अग्निश्व सर्वत्र गृह्यते । अथ ' सुराए य ' सुरायां च ' जे दवेदव्वे ' यानि द्रवद्रव्याणि वर्तन्ते 'एए' एतानि खलु ' पुच्त्रभावपन्नत्रणं पहुच ' पूर्वभावप्रज्ञापनां प्रतीत्य पूर्वावस्थामङ्गीकृत्य ' आउजीवसरीरा' प्रथमम् अब्जीवशरीराणि ' ' तओपच्छा ' ततः पश्चात् यदा' सत्यातीया' शस्त्रातीतानि शस्त्रैः स्वकाया दिशखैः पूर्वपर्यायमतिक्रामितानि ' जाव - यावत् - शस्त्रपरिणामितानि, अग्निध्यामितानि, अग्निजोषितानि, अग्नि सेवितानि अग्निपरिणामितानि भवन्ति तदा ' अगणिकायसरीराइ ' अग्निकायशरीराणि इति ' वक्तव्वंसिया ' वक्तव्यं स्यात् । ર हैं । और जब ये ओखली आदि में डालकर मुशल आदि से कूटने के साधनों से कूटे जाते हैं, और अच्छी तरह से साफ करके अग्निद्वारा पकाये जाते हैं तब ये पक जाने पर अग्निजीव के शरीर हैं इस प्रकार - से कहे जाते हैं । अथवा यहां सूत्र में आये हुए शस्त्र पद से सर्वत्र अग्नि को ही ग्रहण किया गया है । ( सुराए य) सुरा में (जे दवे दब्वे) जो द्रव द्रव्य हैं (एए) ये सब द्रवद्रव्य (पुव्वपन्नचणं पडुच्च ) पूर्वभावप्रज्ञापना को आश्रित करके पूर्व अवस्था को अङ्गीकार करके पहिले ( आउजीवसरीरा ) अष्काय के शरीर थे इस प्रकार से कहे जा सकते हैं । ( तओ पच्छा ) इसके बाद जब वे ( मत्थाईया) शस्त्रातीत शस्त्रोद्वारा स्वकाय आदि शस्त्रों द्वारा अपनी पूर्वपर्याय से रहित कर दिये जाते हैं (जाव) यावत् शस्त्रपरिणामित स्वकाय आदि शस्त्रों द्वारा और भी दूसरी पर्यायवाले घना दिये जाते हैं, तथा अग्निध्यामित, अग्नि जोषित, अग्निसेवित, અને જ્યારે ખાંડણિયા આદિમાં નાખીને મૂશળ આદિ વડે તેને ખાંડવામાં આવે છે, અને ત્યાર બાદ સાફ કરીને જયારે તેને અગ્નિ પર પકાવવામાં આવે છે, ત્યારે તેને અગ્નિકાય જીવનું શરીર કહી શકાય છે અથત્રા અહીં સૂત્રમાં આવેલા શસ્ત્ર પદથી સત્ર અગ્નિને જ ગ્રહણ કરેલ છે. 66 सुराए य " सुरा (भहिरा) भां " जे दव्वे दवे " ने अवाही द्रव्यो छे, 'एए णं" ते सधणां प्रवाही द्र्य " पुञ्त्रपन्नवणं पहुच " पूर्वभाव प्रज्ञापनानी अपेक्षाये भेटले } पूर्व पर्यायनी अपेक्षाओ पडेलां " आउजीवसरीरा " अथायनां शरीर हृतां, गेम ही शाय छे " तओ पच्छा " त्यार माह ब्यारे सत्थाईया " शस्त्रो द्वारा स्वहाय माहि शस्त्रो द्वारा तेने पूर्व पर्यायथी रहित शय छे, "जाव યાવત્ શસ્ત્રપરિણામિત- સ્વકાય પર્યાયવાળા બનાવી દેવાય છે, તથા અગ્નિદ્વારા << ܕܕ આદિ શસ્રો દ્વારા ખીજી અગ્નિપરિણામિત પન્તની
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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