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________________ new न्द्रका टीका श० ५ उ० १ सू० ४ लक्षणसमुद्रवतव्यतानिरूपणम् ९५ विभाणियन्वा ' यथैव धातकीखण्डस्य वक्तव्यता भणिता तथ्य आभ्यन्तर पुष्करार्धस्यापि वक्तव्यता भणितव्या, किन्तु ' नवरं ' विशेषः पुनरेतावानेव यत् ' अभिलावो' अभिलापः ' भाणियच्चो' भणितव्यः । धातकीखण्डस्य शब्दस्थाने आभ्यन्तरं पुष्करार्धशब्देन संवलितः आलापकः स्वयमूहनीय: 'जाव ' यावत्करणात् ' यदा खलु भदन्त | दक्षिणार्धे प्रथमा अवसर्पिणी भवति, तदा उत्तरार्धेऽपि मंथमा अवसर्पिणी भवति यदा च उत्तरार्धेऽपि अवसर्पिणी भवति' इति संग्राह्यम् । ' तया' तदेव अभितरपुक्खरद्धस्स वि भाणियव्वा ) हे गौतम ! जैसा धातकी खंडद्वीप की वक्तव्यता प्रकाशित की है उसी प्रकार से आभ्यन्तर पुष्करार्ध की भी वक्तव्यता कहलेनी चाहिये । यद्यपि उसवक्तव्यता में और इस वक्तव्यता में भाव की अपेक्षा कोई अन्तर नहीं है । फिर भी अभिलाप में जो शाब्दिक अन्तर है वह इस प्रकार है - ( नवरं अभिलावो भाणियaat ) अभिलाप का उच्चारण करते समय उसमे (आभ्यन्तर पुष्करार्ध ऐसे शब्द का प्रयोग करके अभिलाप का उच्चारण करना चाहिये । अर्थात् (धातकी खंड) इस शब्द के स्थान में आभ्यन्तर पुष्करार्ध शब्द को जोड़कर आलाप को अपने आपः उद्भावित कर बोलना चाहिये। बोलने की पद्धति धातकीखंड के आलाप की तरह से ही हैपरन्तु धातकी खंड की जगह में आभ्यन्तरपुष्करार्ध शब्द को जोड़ लेने से वह सबका सब आलापक आभ्यन्तर पुष्करार्ध संबंधी बन जाते है । यहां जो यावत् पद का प्रयोग किया गया है उससे (यदा खलु भदन्त | दक्षि प्रथम अवसर्पिणी भवति, तदा उत्तरार्धेऽपि प्रथमा अवसर्पिणी भवति, तदां च उत्तरार्धेऽपि अवसर्पिणी भवति) यह पाठ संग्रहीत हुआ है । अर्थात् प्रभु से गौतम पूछते हैं कि हे भदन्त । जब आभ्यन्तर पुष्कर के 7 1 उत्तर--( जहेव धायईसंडस्स वक्तव्वया तद्देव अभितरपुक्खर स्स वि भाणियन्वा ) घातडीज उना विषयभां ने अहारतुं वर्थ भाग श्वामां यान्युं छे, એવુંજ વન આભ્યન્તર પુષ્કરાષ્ટ્રના વિષયમાં પણ અહીં કરવુ જોઇ એ. તે બન્નેના આલાપકામાં ભાવની અપેક્ષાએ કાઈ પણ ફેરફાર નથી પણ જે शाण्डिं४ ३रार छे. ते नीचे अमा समन्वो- (नवर' अभिलावो भाणियन्वो ) ધાતકીખંડના આલાપકામાં જ્યાં ( ધાતકીખ's ) પદ્મના પ્રયાગ કર્યાં છે, ત્યાં ( આભ્યન્તર પુષ્કરા) પદ્યના પ્રયોગ કરવા જોઇએ. પુષ્કરા વિષયક છેલ્લે यालाय! या प्रभाो मनशे (यदा, खलु भदन्त ! दक्षिणार्धे प्रथमा अवसर्पिणीभवति, तदा उत्तरार्धेऽपि प्रथमा अवसर्पिणी भवति, यदा च उत्तरार्धेऽपि अवसर्पिणी भवति )
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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