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________________ १०६० __ भगवतीय योजनविस्तृतत्वेऽपि असंख्याततमद्वीपपरिक्षेपतो बृहत्तरत्वात् परिक्षेपस्य असंख्यातयोजनसहस्रप्रमाणत्वम् , आभ्यन्तर-बहिःपरिक्षेपविभागस्तु नात्रोक्ता, उभयस्यापि असंख्याततया समानत्वात् , । अथ च ' तत्थ णं जे से असंखिज्जवित्थडे' तत्र तयोः संख्यातासंख्यातविस्तृतयोमध्ये खलु यः सः असंख्येयविस्तृतो वर्तते 'तमस्कायः ' से णं असंखेज्जाई जोयणसहस्साई विक्खंभेणं' स खलु असंख्येयानि योजनसहस्राणि विष्कम्भेण विस्तारेण वर्तते ' असखेज्जाई जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं पण्णत्ते' असंख्येयानि योजनसहस्राणि परिक्षेपेण परिधिना प्रज्ञप्तः । परिक्षेप-परिधि की अपेक्षा वह असंख्यात योजनसहन तक विस्तार वाला है-यद्यपि तमस्काय का विस्तार संख्यात योजन का प्रकट किया गया है फिर भी यहां जो परिधि की अपेक्षा उसे असंख्यात योजन सहस्र तक विस्तृत कहा गया है सो उस का कारण यह है कि असंख्याततम द्वीपके परिक्षेप से इसमें बृहत् तरता आ जाती है इस कारण इसके परिक्षेपको असंख्यात योजनसहस्त्र प्रमाणवाला कहा गया है। यहां पर इसके भीतर और वाहरके परिक्षेपका विभाग तो कहानहीं है कारण कि असंख्यातताको लेकर दोनों भीतर और बाहिरके परिक्षेपोंमें तुल्यता है। (तत्थ णं जे से असंखिजवित्थडे-से णं असंखेजाई जोयणसहस्साई विक्खंभेणं) इन दोनों तमस्कायों के बीच में जो तमस्काय असंख्यात विस्तृत है, वह विक्खभ -चौड़ाई की अपेक्षा असंख्यात योजनसहस्रतक विस्तृत है तथा (असंखेजाई जोयणसहस्साई परिक्खेवेण) परिक्षेप-परिघिकी अपेक्षा वह असंख्यात योजनसहस्र तक का विस्तार वाला है। ની અપેક્ષાએ અસંખ્યાત હજાર યોજન સુધીના વિસ્તારવાળે છે. જો કે તમસ્કાયને વિસ્તાર (વિષ્કભ ) સંધ્યાત ચીજન પ્રમણિ કહ્યો છે, તે પણ તેને પરિક્ષેપ (પરિધિ) અસંખ્યાત જન પ્રમાણુ કહ્યો છે, તેનું કારણ એ છે કે અસંખ્યાતમ દ્વીપના પરિક્ષેપને લીધે તેના પરિક્ષેપની અધિકતા આવી જાય છે. તેથી જ સંખ્યાત ચીજનના વિસ્તારવાળા તમસ્કાયને પરિક્ષેપ અસંખ્યાત જનનને કહ્યું છે. અહીં તેના બહારના અને અંદરના પરિ ક્ષેપને વિભાગે કહ્યું નથી, તેનું કારણ એ છે કે અસંખ્યાતતાની અપેક્ષાએ मारना मन मा परिक्षपमा समानता रहेकी छे. ( तत्य णं जे से असखिज्जवित्थडे-से णं असखेज्जाइं जोयणसहरसाई विक्खंभेणे) ते भन्न તમામને જે અસંખ્યાત વિસ્તારવાળે તમસ્કાય છે, તે વિષ્કભા (पाणी) नी अपेक्षा मन्यात योजना विस्तारवाजा छ, तथा ( असखजाई जोयणसहस्साई परिक्खेवणं) परिक्ष५ (परिधि) અપેક્ષાએ તે અસંખ્યાત હજાર યોજન પ્રમાણુ વિસ્તારવાળે છે.
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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