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________________ मैन्द्रिका ठी० श०६ ९० ५ सू० १ तमस्कायस्वरूपनिरूपणम् १०५५ अरुणोदकं समुद्रं द्विचत्वारिंशद्द्योजनसहस्राणि अवगाह्य उल्लङ्घ्य अरुणोदक समुद्रस्य द्विचत्वारिंशत्सहस्रसयो जनगमनानन्तरमित्यर्थः ' उवरिल्लाओ जलंताओ एगए सियाए सेडीए - एत्थ णं तमुक्काए समुट्टिए ' उपरितनाद् जलान्तात् जलान्तिमभागात् एकप्रदेशिकार्या एक एव न द्वयादयः उपर्यधः प्रदेशो यस्यां सा तस्यां श्रेण्यां समभित्तितायामित्यर्थः नतु एकप्रदेशममाणायां, तथात्वे जीवानाम् असंख्यात प्रदेशावगाहस्वभावत्वेन एकप्रदेशप्रमाणायां श्रेणौ जीवावगाहाभावमङ्गात् चारों और से घेरे हुए अरुणोदय समुद्र को ४२ हजार योजन उल्लंघित करके - अर्थात् अरुणवरद्वीप की बाह्यजगती के अन्तिम भाग से लगाकर अरुणोदय समुद्र को ४२ हजार योजनप्रमाण पार करने के बाद ( उवरिल्लाओ जलताओ ) उपरितन जलान्त आता है जल के अन्तिमभाग का नाम जलान्त है । इस जलान्तके ऊपर ही (एमएए सिघाए सेटीए एत्थ णं तमुक्काए समुट्ठिए ) ऊपर नीचे समान है - प्रदेश जिसमें ऐसी दीवाल के जैसी एक प्रदेशिका श्रेणी है यहां पर " एक प्रदेशिका श्रेणि " का अर्थ ऐसा नहीं करना चाहिये कि " जिसमें एक ही प्रदेश हो, दो आदि प्रदेश न हों ऐसी जो श्रेणी है, वह एक प्रदेशिका श्रेणी है " क्यों कि ऐसा अर्थ करने में सिद्धान्त से बाधा आती है कारण कि जीवों का स्वभाव आकाश के असंख्यात प्रदेशों में अवगाहन करने का है अतः एकप्रदेश प्रमाण वाली श्रेणी में जीवों के अवगाहन होने का समुहं बायालीस जोयणसहरसाणी ओगाहित्ता ) ते द्वीपने यारे तर३थी घेरीने રહેલા અરુણેદય સમુદ્રમાં ૪૨૦૦૦ ચેાજનનું અતર પાર કરીને—એટલે કે અરુણુંવર દ્વીપની બાહ્ય જગતીના અન્તિમ ભાગથી શરૂ કરીને અરુણાય समुद्रने ४२००० योजन अभाशु यार पुरीने " उवरिल्लाओ जलताओ " 64તિન જલાન્ત આવે છે. ( જળના અન્તિમ ભાગને જલાન્ત કહે છે. ) તે नसान्तनी सुंदर ४ ( एगपएसियाए सेढोए एत्थणं तमुक्काए समुट्ठिए ) (थर અને નીચેના ભાગમાં સમાન પ્રદેશવાળી, દીવાલના જેવી એક પ્રદેશિકા શ્રેણિ छे. अहीं" एक प्रदेशिका श्रेणि " नो सेवा अर्थ उरवा लेागो नहीं “ જેમાં એક જ પ્રદેશ હાય, એ ત્રણ આદિ પ્રદેશ ન ાય, એવી જે શ્રેણી છે તેને એકપ્રદેશિકા શ્રેણી કહે છે ” કારણ કે એવા અથ કરવામાં સિદ્ધાન્તની દૃષ્ટિએ ખાધા ( મુશ્કેલી ) નડે છે, કારણ કે આકાશના અસંખ્યાત પ્રદેશામાં અવગાહના કરવાના જીવાના સ્વભાવ છે. તેથી એક પ્રદેશ પ્રમાઝુવાળી શ્રેણીમાં જીવાનું અવગાહન હાવાનું સંભવી શકતું નથી. તમસ્કાયને
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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