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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श.३उ.६८.२ अमायिनोऽनगारस्य विकुर्वणानिम्पणम् ७४३ भावितात्मा 'अमाई अमायी कपटरहितः 'सम्मट्टिी' सम्यगुप्टिः सम्यगदर्शनसम्पन्नः 'चीरियलद्धीए' वीर्यलब्ध्या 'वेउब्धियलद्धीए' चैक्रियलब्ध्या, 'ओहिनाणलद्धीए' अवधिज्ञानलब्ध्या च 'रायगिहं नगरं राजगृहं नगरम् 'समोहए' समवहतः, विकुर्वितवान्, 'समोहणित्ता' समवहत्य 'वाणारसीए' वाराणस्याम् 'नयरीए' नगर्या स्थितः 'ख्वाई' राजगृहगतानि वैक्रियमनुप्यपश्वादि रूपाणि 'जाणइ, पासइ ?' जानाति, पश्यति ? भगवान् आह-'हंता, जाणइ, हैं कि-'अणगारे णं भंते !' हे भदन्त ! ऐसा अनगार जो कि 'भावियप्पे भावितात्मा है 'अमाई कपट से रहित है 'सम्मदिट्टी' सम्यक् दर्शनसे युक्त है वह 'बीरियलद्वीए' अपनी वीर्यलब्धिद्वारा, वेउब्बियलद्धीए' चक्रियलब्धिद्वारा 'ओहिणाणलद्धीए' अवधिज्ञानलब्धिद्वारा, रायगिहं नयरं समोहए' राजगृह नगरकी यदि विकुर्वणा करता है और 'समोहणित्ता' विकुर्वणा करके 'वाणारसीए नयरीए' चाणारसी नगरीमें पहिले से स्थित हुआ वह क्या 'स्वाई' राजगृह नगरगत वैक्रियमनुप्यों के एवं पशु आदिकों के रूपोंको 'जाणइ पासह जानता देखता है ? तात्पर्य पूछनेवालेका यह है कि-कोई सम्यग्दृष्टि भावितात्मा अमायी अनगार वाणारसीनगरीमें वर्तमान में है। वहां उसने अपनी विक्रियाशक्तिद्वारा राजगृहनगर की विकुर्वणा की-तो ऐसी स्थितिमें चाणारसी नगरीमें रहा हुआ वह सम्यग्दृष्टि भावितात्मा अनगार विकुर्वित हुई उस राजगृह नगरी के विकुर्चित किये गये मनुप्यादि रूपोंको अपने ज्ञान द्वारा जानता देखता है क्या? तो प्रश्न-'अणगारेणं भंते ! भावियप्पे अमाई सम्मदिट्टी महन्त ! मभायी (पाय २हित), सभ्यcिe [सभ्य शनयी युत], भावितामा मार 'वीरियलद्धीए' पोतानी वीalu , 'वेउब्धियलद्धीए' यिalayaN, 'ओहिणाणलद्धीए' भने मधिज्ञानधि द्वारा, 'रायगिह नयरं ममोहए' 28 नगन विशुपए। ४२, तो 'समोहणिता' विव' शने 'याणारसीए नयरीए' વાણારસી નગરીમાં બેઠાં બેઠાં તે “ રાજગૃહ નગરના વયિ મનુષ્ય રૂપને તથા पशु ३पाने 'जाणइ पासइ' शुotel छ भने हेभी शछ ? नाना प्रश्ननु તાત્પર્ય નાચે પ્રમાણે છે કે ભાવિતાત્મા, અમાથી, સમ્યદૃષ્ટિ અણુગાર વાઘુરસી નગરીમાં રહેલ છે. ત્યાં બેઠાં બેઠાં તેણે તેની ક્રિયશક્તિદ્વારા રાજગૃહ નગરની રચના કરી છે. તે શું તે અણગાર વાણુરસી નગરીમાં બેઠાં બેઠાં, તે વિકર્વિત રાજય નગરના મનુષ્યાદિ ક્રિયરૂપને તેના જ્ઞાન દ્વારા શું જાણી દેખી શકવાને સમર્થ હોય છે?
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
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