SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 957
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . प्रमेयचन्द्रिकाटीका श. ३ उ. ६ सू. १ मिथ्यादृप्टेरनगारस्य विकुर्वणानिरूपणम् ७३१ विपरीतज्ञानं भवति यत्- ' एवं खलु अहं ' एवं खलु अहम् ' वाणारसीए' वाराणस्यां 'नगरीए' नगर्यां 'समोहए' समवहतः 'समोहणित्ता' समवहत्य 'रायगिहे नयरे' राजगृहे नगरे स्थितः 'वाई' वाराणसीगतानि वैक्रियमनुप्यादिरूपाणि 'जाणामि, पासामि' जानामि, पश्यामि इत्येवं 'से से दंसणे' तत् तस्य अनगारस्य दर्शने विचासे' व्यत्यासो विपर्यासो भवति, अन्ते उपसंहरति-' से तेणद्वेणं तव तेनार्थेन वैपरीत्यज्ञानेन जाव - अण्णाभाव' यावत् - अन्यथाभावम् ' जाणड़, पासड़ जानाति, पश्यति यावत्करणात्- 'नो तथाभावं जानाति, पश्यति' इति संग्राह्यम् ? गौतमः पुनः विकुर्वणामकारं पृच्छति - 'अणगारेण भंते !' इत्यादि । हे भदन्त ! अनगारः खलु 'भावियप्पा' भावितात्मा 'माई मिच्छदिट्टी' मायी मनमें ऐसा विचार रहता है अर्थात् उसके मनमें ऐसा विपरीतज्ञान होता है कि- मैं ' वाणारसीए नयरीए' वाणारसी नगरी में समवहत हुआ हूं - अर्थात् वाणारसी नगरीकी मैंने विकुर्वणा की है और विकुर्वणा करके मैं राजगृह नगर में स्थित हुआ 'ख्वाई' वाणारसीगत वैक्रिय मनुप्यादिरूपको 'जाणामि पासामि' जानता देखता हूं 'से' इस प्रकार से 'से' उसके 'दसणे' दर्शन - देखने में 'विवचासेभवह' विपर्यास होता है । 'से तेणणं जाव अन्नहा भाव जाणइ पासह' इस कारणसे हे गौतम मैंने ऐसा कहा है कि वह यावत् अन्यधाभावसे जानता है और देखता है यहां यावत्पद से 'नो तथाभाव' जानाति पश्यति' इस पाठका संग्रह हुआ है । अब गौतम पुनः विकुर्वणा के प्रकारको प्रभुसे पूछते है - 'अणगारे णं भंते । भाविप्पा माई मिच्छदिट्ठी' हे भदन्त ! मायी वयार अधाय छे-अथवा तेना मनमां मे विपरीत ज्ञान थाय छे छे 'वाणारसीए नयरीए' पारसी नगरीमां हां हां में गृह नगरनी विठुवा उरी छे, अने विश्र्वा श्ररीने शन्तगृह नगरमां हां हां 'रूबाई' वाराशुसीनां वैडिय मनुष्याहि उपाने ' जाणामि पासामि' हुँ लगी शत्रु छु भने हेभी शत्रु छु 'से' या अरे 'से दंसणे' तेनां नभां [हणवाना तां] ' विवञ्चासे भवड़ विपर्यासभावविपरीतता भावी लय छे से तेणट्टेणं जान अन्नदाभावं जाणूड़ पास ' મે એવું કહ્યું છે કે તે અણુગાર એ રૂપાને તથાભાવે જાણુને દેખતે નથી, પણ અન્યથા लावे लोहे छे. " હવે એક બીજી વિધ્રુવ ણુાના વિષયમાં ગૌતમ સ્વામી મહાવીર પ્રભુને પૂછે છે– प्रश्न - 'अणगारेण भंते ! भावियप्पा माई मिच्छादिट्टी' हे बहत ! ४४
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy