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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श.३ उ.६ सू. १ मिथ्यादृष्टेरनगारस्य विकुर्वणानिरूपणम् ७२९ रसीए नयरीए' वाराणस्यां नगर्याम् ' रुवाइ ' राजगृहगतानि विकुर्वितमनुप्यादिरूपाणि 'जाणइ, पास ? जानाति, पश्यति १ यावत्करणात् - वीर्य - लब्ध्या, वैक्रियलब्ध्या, विभङ्गज्ञानलब्ध्या ' इति संग्राह्यम् । भगवानाह - 'हंता, जाणइ, पास' इत्यादि । हे गौतम ! हन्त, स्वीकरोम्यहं यत् स जानाति, पश्यति, 'तं चैव जाव' तच्चैव यावत् पूर्ववदेव सर्व विज्ञेयम् तथा च यावत्करणात् 'स भगवन ! किं तथाभावं जानाति, पश्यति ? अन्यथाभाव (वा) जानाति, पश्यति ? गौतम ! नो तथाभाव जानाति, पश्यति, (किन्तु ) करता है - अर्थात् वह राजगृहनगरको अपनी विक्रियाशक्तिसे विक वित करता है और 'समोहणित्ता' विकुर्वणा करके 'वाणारसीए नयरीए रुवाई जाणइ पासह' विकुर्वित करके तद्गतरूपोंको जानता है और देखता है क्या ? प्रश्नका भाव ऐसा है कि बाणारसी नगरीमें रहा हुआ कोई मायी मिध्यादृष्टि भावितात्मा अनगार यावत् राजगृह नगरकी विकुर्वणा करके उस राजगृह नगरगत विकुर्वित मनुष्यादिरूपोंको जानता देखता है ? यहां यावत् पदसे 'वीर्यलब्ध्या, वैक्रियलब्ध्या ' विभङ्गज्ञानलब्ध्या' इस पाठका संग्रह हुआ है । भगवान् इसका उत्तर देते हुए गौतमसे कहते हैं कि- 'हंता जाणइ पासह' हे गौतम ! वह उनरूपोंको जानता है और देखता । 'तं चेव जाव' यहां पूर्व की तरह ही यावत् सव कथन जानना चाहिये- यहां यावत् शब्द से 'स भगवन् ! किं तथाभावं जानाति पश्यति ! अन्यधाभावं वा जानाति पश्यति । गौतम ! नो तथाभावं जानाति पश्यति किन्तु अन्यथाभावं नगरनुं पोतानी वेडियशस्तिथी निर्माणु उरे छे, भने ' समोहणित्ता' से प्रभारी दुर्वा उरीने, 'वाणा fए नयरीए रुवाई जाणइ पासइ ?' शुं त्यां रडेलां રૂપાને તે રૃખી જાણી શક છે? પ્રશ્નના ભાવાથ નીચે પ્રમાણે છે-વારાણુસા નગરીમાં રહેલા કોઇ માયી મિથ્યાદષ્ટિ અણુગાર રાજગૃડ નગરની વિષુ'ણા કરે છે. શું તે અણુગાર વાણુારસી નગરીમાં બેઠાં બેઠાં તે વિકૃવિત રાજગૃહે નગરનાં મનુષ્યાદિ વિવિત ३पाने लगी शडे हो भने हेभी शडे हो ? उपरोक्त प्रश्नमा 'जाव' [यावत ] पहथी 'वी रियलडीए, वेउच्चियलडीए, विभंगणाणळद्धीए' मा होने थषु श्वाभां माया छे. उत्तर - : ता जाणइ पासइ' हे गौतम! ते मधुगार ते इयोने हो छे भने ?थे छे. 'तंचेत्र जाव' अडीं पूर्वोत अथन प्रभाव समस्त उथन लघु
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
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