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________________ प्रमेयचन्द्रिकाटीका श. ३ उ. ५०१ विकुर्वणा। विशेपवक्तव्यतानिरूपणम् ६८९ ' ( 'विकुव्विस्सति वा' विकुर्विध्यति वा, ' एवं ' उक्तरीत्या 'दुहओ पडागं पि द्विधापताकामपि, ' हस्ते कृत्वा ' उभयपार्श्वस्थितध्वजयुक्तपताका धारि वैक्रिय पुरुषाकार स्वस्वरूपविपयकोऽपि आलापको ज्ञातव्यः । एतावता तद्यथा' नाम कोऽपि पुरुषः द्विधा पताकां कृत्वा गच्छेत्, एवमेव हे भदन्त ! अनगारोऽपि भावितात्मा द्विधा पताकाहस्ते कृत्य गतेन आत्मना ऊर्ध्वं विहाय उत्पतेत् किम् ? इति गौतमस्य मनः, तरहसे ही जानना चाहिये। विकुव्विसु वा विकुत्र्ांति, विकुव्विस्संति वा' तात्पर्यकहने का यह है कि वह भावितात्मा ऐसे अनेक आकारों को बना सकता है कि जिनसे समस्त जंबूद्वीप वह भर सकता है परन्तु ऐसे वैक्रियरूपों को उसने आजतक कभी नहीं किया है न वर्तमान में करता है और न वह भविष्यत् कालमें ऐसे रूपों की विकुर्वणा ही करेगा यह तो उसकी केवल शक्तिमात्र का प्रदर्शन करनेके लिये कहा गया है । 'एवं दुहओ पडागं पि' इसी तरह से दोनों बाजू में पताका को धारणकरने वाले पुरुष के जैसे आकार वाले अपने वैक्रिय स्वरूप के विषय में भी समझना चाहिये । उस विषयक आलाप इस प्रकार से है - जैसे हे भदन्त ! कोई पुरुष दोनों अपनी बाजुओ में पताका को लेकर चलता है-इसी प्रकार से भावितात्मा अनगार भी क्या दोनों अपनी बाजुओं में पताका को धारण करनेवाले पुरुष के आकार जैसा अपना आकार विकुर्वित करके आकाशमें ऊँचे उड़ सकता है ? तब प्रभु इस प्रश्नके समाधान 'त्रिकुचिसु वा विकुव्र्व्वति वा, विकुव्विस्संति वा अडेवानुं तात्पर्य से छेड्ढे ભાવતાત્મા અણુગાર એવાં અનેક પુરુષઆકારાનું નિર્માણુ કરી શકે છે. અને તે આકાશ વડે સમસ્ત જખૂદ્વીપને ભરી દેવાને સમ છે પરન્તુ એવાં વૈક્રિય રૂપનું નિર્માણુ તેણે ભૂતકાળમાં કદી કર્યું નથી, વર્તમાનકાળમાં કરતા નથી; અને ભવિષ્યમાં કરશે પણુ નહીં—અહીં, આ જે કથન કર્યુ છે તે તેની શકિતનું પ્રદર્શન કરવાના આશયથી જ ४रा छे 'एवं दुहओ पडागं पि' से प्रभारी भन्ने मान्नु ने चताधारी वैश्यि પુરુષરૂપેાના વિષયમાં પણ સમજવું. તેના વિષે આ પ્રકારના પ્રશ્નારા ખનશે—હે ભદન્ત ! જેવી રીતે કાઈ પુરુષ પોતાની બન્ને બાજુએ પતાકા ધારણ કરીને ચાલે છે, એવી રોતે બન્ને બાજુએ પતાકા ધારણ કરી હાય..એવા પુરુષરૂપની વિધ્રુણા કરીને शुभावितात्मा अष्थुगार, मामाशमां ये बडी शो. हे ? उत्तर - हे गौतम, हाते "
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
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