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________________ प्रमेयचन्द्रिकाटीका श.३ उ.५सू.१ विकुर्वणाविशेषवक्तव्यतानिरूपणम् ६८१ कियत्संख्यकानि 'इत्यिख्वाई' स्त्रीरूपाणि 'विउवित्तए' विकुक्तुिं विकुर्वणया निष्पादयितुम् 'पभू' प्रभुः समर्थः ? भगवानाह-गोयमा! से जहा' इत्यादि । है गौतम ! तद्यथा 'नामए' नाम इति वाक्यालङ्कारे 'जुबई जुवाणे' युवतिं कश्चिद् युवा 'हत्येणं हत्थे' हस्तेन हस्ते 'गेण्हेजा' गृह्णीयात् संसक्ताङ्गलितया संलग्नः स्यात्. यथा वा 'चकस्सनाभी' चक्रस्य नाभिः मध्यवर्तिकाप्ठम 'अरगाउत्ता सिया' अरकायुक्ता अरकोभिः सम्बद्धास्यात् 'एवामेव' एवमेव तथैव 'अणगारे विभावियप्पा अनगारो ऽपि भावितात्मा 'वेउविअसमुग्याएणं' वैक्रियसमुदयातेन 'समोहणइ' समवहन्ति समवहतो भवति 'जाव-पभूणं गोयमा ! हे गौतम ! यावत्-प्रभुः णे भंते' हे भदन्त ! भावितात्मा अनगार 'केवड्याई कितने कितनी संख्यावाले 'इस्थिख्वाई' स्त्रीरुपों को 'विउवित्तए पभू' विकुर्वित करने के लिये विकुर्वणा से निप्पन करने के लिये समर्थ है ? इसका उत्तर देते हुए प्रभु कहते हैं कि-'से जहा नामए जुवाणे जसे कोई एक पुरुप 'जुवई युवती स्त्री को 'हत्थेणं' अपने हाथ से 'हत्थे हाथ में पकड़लेता है अर्थात् परस्पर भिन्न होने पर भी जब वे आपसमें संलग्न होते हैं तो ऐसे मालूम होते हैं कि ये दोनों एक हैं, इसी तरह 'चकस्सनाभी' चक्र-पहियो का जो मध्यवर्ती काष्ठ होता है वह 'अरगा उत्तासीया' अरकों से पहिये में लगे हुए काष्ठों से जैसे सम्बन्ध रहा करता है 'एवामेव इसीतरहसे 'भावियप्पा अणगारे वि' भावितात्मा अनगार भी 'वेउन्नियसहुग्याएणं' वैक्रियसमुद्धात से 'समोहणई' अपने आत्मप्रदेशों को समवहत-युक्त करता ___ -'भावियप्पा अणगारे णं भंते ! महन्त ! witualभा म॥२, 'केवइयाई इत्थिरूचाई विउवित्तए पभू तनी विgagu स्तिथी 26i श्री રૂપનું નિર્માણ કરી શકવાને સમર્થ છે? મહાવીર પ્રભુ તેને આ પ્રમાણે ઉત્તર माघे छे–'से जहा नामए जुवाणे २वी शत पुरुष 'जुवई' t श्रीन हत्येणं, ना पायथी 'हत्थे, ५ वाले समय हाय छ (मेट ५२२५२ ભિન્ન હોવા છતાં પણ જ્યારે તેઓ આપસમાં સંલગ્ન થઈ જાય છે ત્યારે એવું લાગે छ : मन्ने मे४४ छे), २६ी रीते 'चकस्सनाभी अरगा उत्तासिया' यनी नाली श्यना सामान भागे रामपाने समर्थ हापछे, मेवीशत भावियप्पा अणगारे वि वेउनियममुग्याएणं समोहपा' न्यारे :ilaakमा मगार १५
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
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