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________________ " प्रमेयचन्द्रिकाटीका श. ३ उ. ५०१ विकुर्वण । विशेपवक्तव्यतानिरूपणम् ६७९ निगपयितु' प्रस्तौति- 'अणगारेणं भंते 1 इत्यादि । गौतमः पृच्छति - हे भदन्त ! अनगारः खलु 'भात्रियप्पा' भावितात्मा वाहिरए' वाह्यान् 'पोगले ' पुद्गलान ' अपरियाइत्ता ' अपर्यादाय अपरिगृह्य ' एगं महं' एक महत् विशाले 'इत्थीरू' वा' स्त्रीरूपं वा 'जाब- संद्माणिय रूवं वा यावत् स्यन्दमानिका रूपं वाहन विशेषरूपं वा 'विउन्वित्तए ' विकुर्वितुम् ? 'पभू' प्रभुः समर्थः किम् यावत् करणात् पुरुषरूपं चा, यानरूपं वा वस्तिरूपं वा, गिल्लिथिल्लि - शिविकारूपं वा' इति संग्राह्यम्, भगवान् आह- 'नो इट्टे समट्ठे' हे गौतम! पंचम उद्देशक में उसी विकुर्वणा को विशेषरूप से निरूपण करनेके लिये कथन किया जा रहा है । गौतमस्वामी प्रभु से पूछ रहे हैं कि 'भावियप्पा अणगारे णं भंते' हे भदन्त ! भावितात्मा अनगार 'बाहिरए पोगले' बाह्य पुद्गलों को वैक्रिय शरीर के पुद्गलों को, 'अपरियाइत्ता' ग्रहण नहीं करके 'एग महं' एक विशाल 'इत्थीरूवं वा, स्त्री रूपको जथवा 'जाव संद्माणियरूवं वा' यावत् स्यन्दमानिका के रूपको विउत्तिए' विकुर्वित करने के लिये 'पभू' समर्थ है क्या ? यहाँ जो यावत् पद आया है-उससे 'पुरुषरूपं वा, यानरूपं वा, हस्तिरूपं था, गिल्लि, थिल्लि -शिविकारूपं वा, इन पहिले कहे गये पदोंका ग्रहण हुआ है । प्रश्नकार का अभिप्राय ऐसा है किं भावितात्मा अनगार वैक्रिय शरीर के पुद्गलों को ग्रहण न करे और स्त्री आदि के रूपों का वह निर्माण करके क्या ऐसा हो सकता है ? इसका उत्तर देते हुए प्रभु गौतम से कहते हैं કમાં પણ વિધ્રુણાનું વિશેષ નિરૂપણ કરવાને માટે નીચેનાં સૂત્ર આપવામાં આવ્યાં છે. प्रश्न- 'भावियप्पा अणगारेण भंते !' हे लहन्त ! भावितात्मा अगुगार, 'बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता' मा पुगसेोने (वैश्यि शरीरनां पुहुगसोने) श्रद्धालु र्थ्यां विना 'एगं महं' मे४ विशाण ' इत्थीरूवं वा' श्री३पनी अथवा जाव संदपर्यन्तना इयोनी 'विकुव्वित्तए पभू ?' विभुवयां ५ माणिय रूवं वा' स्यन्हमानि કરી શકવાને શું સમર્થ છે ? या सूत्रमां ने 'जान' (यावल) यह आयु छे तेना द्वारा 'पुरुषरूपं वा, यानरूपं वा, हस्तिरूपं वा, गिल्लि थिल्लि, शिविका रूपं वा' या होना संग्रह થયે। છે પ્રનનું તાત્પર્ય નીચે પ્રમાણે છે--ભાવિયામા અણુગાર, વૈક્ષ્યિ શરીરનાં પુદ્ગલે ને ગ્રહણ ન કરે તેા પણ શું એક વિશાળ સ્રીરૂપ, અથવા પુરુષરૂપ, અથવા અશ્વરૂપ, અથવા હસ્તિરૂપ, અથવા ગિટ્ટિ, યિદ્ઘિ, શિખિકા, સ્વન્દ્વમાનિકા આદિ રૂપેાનું નિર્માણુ કરી શકવાને શું સમર્થ છે? (ગિäિ આદિ પદાને અર્થ આગળ આવી ગયા છે.)
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
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