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________________ अमेयचन्द्रिका टीका श.३ उ.४ सू.५ अणगारविकुर्वणानिरूपणम् ६६१ परिणमन्ति अन्यथा शरीरदाढर्यासंभवात् तथैव 'अहि-अहि मिंज केम मंमु-रोम-नहताए' अस्थि-अस्थिमजा-केश-उमश्रु-रोम-नखतया अस्थ्यादि-नखान्तं तत्तदवयवरूपेण 'मुफत्तया' शुक्रतया वीर्यतया 'सोणियत्ताए' शोणिततया लोहितरूपेण _ 'परिणमंति' परिणमन्ति प्रणीताहारपुद्गला इत्यर्थः यावत्करणात् चक्षुर्घाणरसनेन्द्रियाणि संग्राह्यानि । अमायिनः अप्रमत्तस्य तदुविपरीतमाह-'अमाईणं' अमायी खलु अप्रमत्तोऽनगारः 'लूह' रूक्षम् अस्निग्धम् घृतादिस्नेहरहितम् 'पाण-भोयणं' पान-भोजनम् 'भोचा भोचा' भुक्त्वा भुक्त्वा ‘णो वामेई' नो बमयति कपायस्पर्शनइन्द्रियरूप से परिणत होते रहते है इससे उसकी स्पर्शन इन्द्रिय चलिष्ठ और अपने कार्यमें अन्ततक कार्यक्षम बनी रहती है। इसी कारण उसके शरीरमें विशेप दृढता रहती है। नहीं तो ऐसी दृढता नहीं ओ सकती। 'अट्टि अडिमिंजकेस-मंसु-रोम-नहत्तए' जिस तरह उसके गृहीत मणीत भोजनके पुदगल अस्थि और अस्थिमज्जाके रूपमें परिणत होते है उसी प्रकार से वे केशके रूपमें, श्मश्रुके रूपमें, रोमके रूपमें और नखों के रूपमें भी परिणत हो जाते हैं। सुक्कत्तया' वीर्यके रूपमें भी परिणत हो जाते है । 'सोणियत्ताए' खूनके रूपमें भी परिणत हो जाते है। यहां यावत् शब्द से 'चक्षु, घ्राण और रसना' इन तीन इन्द्रियोंका ग्रहण हुआ है। अब अमायी जो भावितात्मा अनगार होता है-उसके यह बात नहीं होती है-यही बताया जाता है.'अमाई णं लूहं पाणभायणेणं भोचा भाचा णो वामेइ' जो अमायी भावितात्मा अनगार होता है वह धृतादिस्नेह फासिदियत्ताए' els नेद्रिय३थे, 24 प्राणेन्द्रिय थे, eals स्वाहन्द्रिय ३३ અને કેટલાક સ્પર્શનેન્દ્રય રૂપે પરિણમ્યાં કરે છે. તેથી તેની સ્પર્શેન્દ્રિય પર્યતની ઈન્દ્રિયે બલિષ્ઠ અને પિત પિતાના કાર્યમાં અન્ત પર્યત કાર્યક્ષમ બની રહે છે. તેથી તેનું શરીર વધારે બળવાન હોય છે–નહીં તે શરીરમાં એવું બળ સંભવે નહીં. अहि, अद्विमिंज, केस, मंसु-रोम, नहत्ताए' ते भायी मगारे सीमा प्रहात આહારના પુદગલો જેમ હાડ અને ચબરૂપે પરિણમે છે, તેમ તે પુગલો કેશ મછુ, शम मने नम३थे पर परिश्मता २ छ, 'मुक्कत्तया' वाय३२ पर परिश्मता २ छ भने 'सोणियत्ताए' रुधि२३५ ५५ परिणमता २७ . २ ममाथी भावितात्मा અણગાર હેય છે, તેમની બાબતમાં એ પ્રમાણે બનતું નથી એ વાત સૂત્રકાર નીચેનાં सूत्रा दा 42 ४२ छ- 'अमाईणं लूहं पाणभोयणेण भोच्चा भोच्चा णो वामेड' અમાથી ભાવિતાત્મા અણગાર ઘી આદિ સ્નિગ્ધ પદાર્થોથી રહિત લૂખો આહાર લે છે,
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
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