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________________ - ५८८ . . . . . . . . . . . . . . . . . . .. • . .. .. ..मर्मती मतीत्य आश्रित्य तु सर्वादा सर्वकालः ममत्तसंयमस्य भवति, एतावता एक. जीवमाश्रित्य जघन्यतः एकसमया, उत्कृष्टतो देशोनपूर्वकोटीच प्रमत्तसंयमफाला, नानाजीवान आश्रित्य तु सर्वकाल एव ममत्तसंयमकाल ति फलितम् । • अय मण्डितपुत्रः अपमत्तसंयमस्य कालं पृच्छति--'अप्पमतसंजमस्स गं भंते' इत्यादि ! हे भदन्त ! अममत्तसंयवस्य खल्ल श्रमणस्य 'अप्पमत्तसंजमे हमाणस्स' अप्रमत्तसंयमे वर्तमानस्य नतु अन्यस्मिन् संयमे 'सव्या विणं अप्पमत्तादा' सर्वा अपि सर्वकालसंभवा अपि अप्रमत्तादा अप्रमत्तगुणस्यानककालः 'कालो कालतः अप्रमत्ताद्धा कालसमूहस्वरूपकालमाश्रित्येत्यर्थः 'केयचिर होइ' किया चिरं भवति फियत् कालपर्यन्तं भवति ? अर्थात अप्रमत्तसंयम पालयतः सर्वः कियान् अप्रमत्तसंयमकालो भवति इति प्रश्नः । आराधन किया है । तथा 'णाणाजीवे पडुच्च' अनेक जीवोंकी अपेक्षा लेकर जय छठे गुणस्थान के काल का विचार किया जाता है तो इस का काल सर्वकाल है क्यों कि ऐसा कोई समय नहीं हैं कि जिसमें कोइ न कोइ जीव छटे गुणस्थानमें न रहती हो। इस अपेक्षा इंस का काल सर्वाद्धा कहा गया है । अब मंडितपुत्र ! 'अप्रमत्त संयम का काल कितना है' इस घातको पूछते हैं-हे भदन्त। अप्रमत्तसंयम में वर्तमान अप्रमत्त संयतजीव कितने समय तक सातवे गुणस्थानमें रह सकता है-'अप्पमत्तसंजयस्स णं भंते ! अप्पमत्तसंजमे वट्टमाणस्स सव्वा वि य णं अप्पमत्तद्धा कालंओ केवचिरं होई' यही बात इस सूत्र द्वारा प्रभु से मंडितपुत्रने पूछी है -अप्रमत्त संयतका अप्रमत्त गुणस्थानका जितना सब काल है उसमें से एक अप्रमत्त संयत को काल कालकी अपेक्षा कितना है ? तो इसका उत्तर देते हुए प्रभु जीवे पडुच्ची मने वानी अपेक्षा छह गुस्थानना जना विद्यार ३२वामी भाव तो सब्चाद्धा' ते ४ सय छ, २५ मे ४ प 'નથી કે જ્યારે કેને કૈઈ જીવ છઠ્ઠા ગુણસ્થાનમાં રહેતા ન હોય. હવે મંડિતપુત્ર मत भयना 10 वि प्रश्न रे छे. 'अप्पमत्तसंजयस्स . मते । अप्पमत्तसंजमे बहमाणसं संव्यावि य णं अप्पमत्तद्धा कालओ केचिरं, होड १.१ હે ભદન્ત ! અપ્રમત્ત સંયમનું સેવન કરનારે અપ્રમત્તસંવત જીવ કેટલા સમય પર્યરત સાતમા ગુણસ્થાનમાં રહે છે કહેવાનું તાત્પર્યું એ છે કે અપ્રમત્તાસંયમને અપ્રમત્ત ગુણસ્થાનમાં રહેવાને જેટલો કુર્ત કાળ છે એટલી કાળમાંથી એક અપ્રમત્ત સંયતને imal छ ? नाम भापता महावार प्रभु ४ ३ मंडियपुत्ता !'
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
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