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________________ ममेयचन्द्रिका टीका श.३ उ. ३ सु. ३ जीवानां एजनादिक्रियानिरूपणम् ५६३ ___भगवालाह-'हंता, जाव-भवई' हे मण्डितपुत्र हन्त, यावत्-निष्क्रियावस्था, अन्तक्रिया सम्भवति, यावत्करणात् यावञ्च खलु स नीवः सदासमितं नो एजते, नो व्येजते इत्यारभ्य नो तं तं भावं परिणमति इति मध्यं, तावच खलु तस्य जीवस्य अन्ते अन्तक्रिया' इत्यन्तं संग्राह्यम् । मण्डितपुत्रस्तत्र हेतुं पृच्छति-'से केणटेणं जाव भवई' हे भगवन् ! तत् केनार्थेन केन हेतुना यावत्-जीवस्य अन्तक्रिया भवति, यावत्करणात् यावच्च खलु इत्याशुपयुक्तं संग्राह्यम् । भगवानाह-मंडियपुत्ता !' हे मण्डितपुत्र ! 'नावं च णं से जीवे' हुए प्रभु मंडितपुत्र से कहते है- 'हंता जाव भवह' हां मडितपुत्र!. एजनादिक्रिया रहित जीव को मुक्ति की प्राप्ति हो जाती है । मुक्ति का नाम हो निष्क्रियावस्था है। यहां जो यावत् पद का पाठ आया ' है उससे 'यावच खलु स जीवः सदासमितं नो एजते, नो व्येजते, यहां से लेकर 'नो तं तं भावं परिणमइ' यहांतकका, तथा तावच खलु तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया भवइ' यहां तक का पाठ ग्रहण किया गया है। तात्पर्य कहने का यह है कि जीव जय एजनादिक्रियाओं से रहित हो जाता है और उस उस भाव रूप से परिणमिन नहीं होता है-ऐसी अवस्था जब उसकी हो जाती है तो नियम से ऐसे जीवकी मुक्ति हो जाती है। अब मंडितपुत्र ऐसे जीव की मुक्ति होने में कारण जानने की इच्छा से प्रभु से पूछते हैं कि'से केणटेणं जाव भवई' हे भदन्त ! ऐसे जीव की अन्त में मुक्ति हो जाती है- इसमें कारण क्या है ? इसका उत्तर देते हुए प्रभु उनसे कहते है 'मंडियपुत्ता ! जावं च णं से जीवे' हे मंडितपुत्र ! छ-'हंता जाव भवइ । ॐ भडितपुत्र ! मेना याहित ने भुस्तिनी પ્રાપ્તિ થાય છે. મુકિત એટલે નિષ્કિયાવસ્થા. અહીં જે “યાવત' પદ આવ્યું છે તેના द्वारा "यावच्च खलु सजीवः सदा समितं नो एजते. नो व्येजते' माया थ३ ४शन ' तं तं भावं परिणमइ, ५-तना पाठ तथा 'तावच्च खलु तस्स जीव. स्स अंतकिरिया भवइ । सुधानी 48 ए राय छे. मा ४थना भावार्थ से છે કે જ્યારે જીવ રાગાદિ ભાવથી રહિત થઈ જાય છે, અને તે તે ભાવરૂપે પરિમિત થતું નથી, ત્યારે તે જીવ અવશ્ય મુકિત પામે છે. એવા જીવને શા કારણે મુકિત મળે छे ते anyqा भाटे मलितपुत्र महावीर प्रभुने नीय प्रभाव प्रश्न पूछे छ-' से केण टेणं जाव भवइ ?' 3 महन्त ! सन्ते मेवा १ भुति पास ४२ छ, तेनु ॥२] शु छ ? ' मंडियपुत्ता' भडितपुत्र! 'जावं च णं से जीवे ' या सुधी ते ७१
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
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