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________________ प्रमेयचन्द्रिका टी. श. ३.. उ.३.३ भवति ? नायमर्थः समर्थः, न दे समितम् - यावत्-अन्ते अन्तक्रिया नअटि सदा समितम् यावत् - परिणमनि, आरम्भे, वर्तते, संरम्भे वर्तने समारभमाणः, आरम्भे वर्तमानः " वा एजनादिक्रियानिरयण '"'" एवम उच्यते-यावर स्टीव मण्टिन म आ मायने आन नः समान्य बीमारी है तब तक क्या उस जीवफी अन्नान में फिस मुक्ति होती है ? ( णो णट्टे सम) पुत्र नही (सेकेणणं भंते । एवं बुचद्द, जो जाति 971 Wi अंतकिरिया न भवइ) हे भदन्त ! ऐसा आप फिउन फारम है कि जबतक वह जीव सदा ममममम में कांपता है तबतक यावत् उस जीव की नही होती है पुत्ता ! जाव णं से जीवे सया मसि जाव मि णं से जीवे आरंभ, सारंभ, समारंभ आरंभ ४ समारंभे वह) हे मंडितपुत्र ! जपतक शीघ्र सिता सहित बना रहता है, अथवा राग से मंगता रहा उन २ भावों रूपसे परिणमता रहता है, मरतक ऐसा जीन परंत करता है, संरंभ करता है, समारंभ करता है, आरं (1) भाग परिशुभे छे, त्यो सुधी ते लवनी अंतसमये -भरी ? (णो इणट्टे समट्ठे ) हे भक्तिपुत्र ! गोषु' गानतु' नही भुति थामता नथी. ( से केणटुणं भंते । एवं वर, जाने सयासमियं जात्र अंते अंतकिरिया न भवइ ?) बान्ता કારણે કહેા છે કે જ્યાં સુધી તે જીવ શર્વાદથી યુકત કહે છે અથવા કાદે' '' छे, (यावत्) त्यां सुधी ते लवने भुक्ति भजती नथी ? (मंडिगना ) मंदि (जाव णं से जीवे सया समियं जात्र परिणमई' ता घांसे नीचे रंग, सारंभइ, समारंभइ, आरंभे वट्टड, सारंभे वहइ, समारंगे पट्ट) न्या भ સમિત રહે છે રાગદ્વેષથી યુકત રહે છે, અથવા રાગદ્વેષ રૂપમાં 'પતા રહે છે, ઉપ-~ ર્યુંકત સ` ભાવા રૂપે પરિણમતા રહે છે, ત્યાં સુધી તે જીવ મારા કરે છે, કરે છે, સમારભ કરે છે, આર ંભમાં પ્રવૃત્ત રહે છે, : | પ્રવૃત્ત રહે ·
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
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