SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 683
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयनन्द्रिका टीका श. ३ उ. ३ सू. १ क्रियास्वरूपनिरूपणम् ५२९ मार्दं तेन संपन्नः- अर्थात् अत्यन्तसरल इत्यर्थः, आलीनः- आश्रितः- गुरोरनुशासने तत्परः, अतएव भद्रकः प्रकृत्या ऋजुः, विनीतः अतिनम्र इत्यर्थः 'करणं भंते ! कति खलु कियत्यः भदन्त ! ' किरियाओ पण्णत्ता ' क्रियाः मज्ञप्ताः कति संख्यकाः क्रियाः कथिताः ? क्रियाः कति भेदाः - क्रिया च कर्मबन्धनस्वरूपा, भगवानाह - 'मंडिअपुत्ता !' इत्यादि । हे मण्डितपुत्र ! ' पंच किरियाओ' पञ्चक्रियाः 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः तद्भेदस्वरूपमाह - ' तं जहा ' तद्यथा 'काइया, अहिगरणिभा, ' पाओसिया, पारियात्रणिया, पाणा इवाय किरिया' कायिकी, आधिकरणिकी, माद्वेपिकी, पारितापनिकी, माणातिपातक्रिया, तत्र कायिकी क्रियायाः स्वरूपन्तु - चीयतेऽसाविति कायः शरीरम्, तत्र भवा तेन वा निवृत्ता क्रिया कायिकी इत्युच्यते, आधिकरणिकी - अधिक्रियते नीयते नरकादिदुर्गतौ गुरु के अनुशासन में सदा रहते थे । इसी कारण से प्रकृति से ऋजु थे। अति नम्र थे । प्रभु से इन्होंने जो प्रश्न किया वह इस प्रकार से है-कणं भंते ! किरियाओ पण्णत्ता' हे भदन्त । क्रियाएँ कितनी कही गई हैं ? अर्थात् क्रिया के कितने भेद है ? कर्मों के बंधन में कारणभूत जो चेष्टा है उसका नाम किया है। मंडितपुत्र के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रभु उनसे कहते हैं कि- 'मंडियपुत्ता' हे मंडितपुत्र ! पंच किरियाओ पण्णत्ताओ' क्रियाएँ पांच प्रकार की कही गई हैं । 'तंज' जो इस प्रकार से हैं- 'काइया अहिगरणिया, पाओसिया, पारियावणिया, पाणाइचार्याकरिया' कायिकी, आधिकरणिकी, माहेपिकी, पारितापनिकी, प्राणातिपातक्रिया । अस्थ्यादिका चयरूप जो होता है उसका नाम काय-शरीर है । इस शरीर से जो क्रिया होती है, अथवा इस शरीर के द्वारा जो क्रिया होती है वह कायिकी અને અતિ નમ્ર હતા. તેમણે મહાવીર પ્રભુને વદણા નમસ્કાર કરીને વિનયપૂર્ણાંક ' एवं वयासी' मा प्रभा छ्यु - 'कणं भंते ! किरियाओ पण्णत्ताओं' के महन्त ! ક્રિયાએાના કેટલા પ્રકાર છે? કર્માંના બંધનમાં કારણભૂત જે ચેષ્ટા છે તેને ક્રિયા કહે છે. उत्तर- 'मंडितपुत्ता ! हे मंडितपुत्र लुगार ! 'पंच किरियाओ पण्णत्ताओ' हियाओ यांथ प्रारना उडी छे. ' तं जहा ' तेरो नीचे प्रमाणे ४— काइया अहिगरणिया, पाभोसिया, पारियात्रणिया, पाणाइवायकिरिया ' (१) अयिष्ठी, (२) माधिरथिडी, (3) आषिड्डी, (४) पारितापनिडी भने (4) आध्यातियात हिया. અસ્થિ આદિના સમૂહ રૂપ કાય (શરીર) હોય છે. તે શરીર વડે જે ક્રિયા થાય છે તે ક્રિયાને કાયિકી ક્રિયા કહે છે. જેના દ્વારા આત્મા નરક આદુ - તિમાં જવાના
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy