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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श.३ उ.२सू. १२ चमररस्य क्षमाप्रार्थनादिनिरूपणम् ५०५ कोपाविष्टेन सता 'ममं वहाए' मम वधाय-मम वधार्थ 'वज्जे निसिट्टे' वर्ज निःसृष्टम् मक्षिप्तम् , किन्तु महावीरस्यानुकम्पया ममेकरोमभङ्गोऽपि न जातः इत्याशयेन तान् सामानिकदेवान चमर आह-'त भई गं भवतु' इत्यादि । तत् तस्मात् कारणात् 'देवाणुप्पिया !' भो देवानुपिया ! भद्रं कल्याणं खलु भवतु 'समणस्स भगवओ महावीरस्स' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य, 'जस्सप्पभावे णं म्हि' यस्य महावीरस्वामिनः प्रभावेण अहमस्मि 'अकि ' अक्लिष्टः क्लेशरहितः 'अन्नहिए' अव्यथितो व्यथारहितः अपीडित इत्यर्थः अपीडितत्वेऽपि वह्नि तुल्यकुलिशसन्निकांत-परितापास्यादतः तन्निराकुर्वनाह-'अपरिताविए' अपरितापितःपरितापरहितः 'इहमागप' इह आगतः 'इह समोसढे' इह समवसृतः सुरक्षितः समागतः सन् 'इह संपत्ते इह संपाप्तः, 'इहेव अज' इहैव अद्य इस कारण वह मुझ पर बहुत अधिक कुपित हुआ। और कुपित होकर उसने 'ममं वहाए' मुझे मारने के लिये 'वजं निसिहे' वज़ फेंका किन्तु महावीर की अनुकम्पा से मेरा एक रोम भी भङ्ग नहीं हुआ है। अतः 'देवाणुप्पिया' हे देवानुमियो ! 'समणस्स भगयओ महावीरस्स' श्रमण भगवान महावीर का ' भद्देणं भवतु' भला होवे, कि 'जस्स पभावेणं अकिटे अव्वहिए अपरिताविए म्हि' जिनके प्रभाव से मैं क्लेश रहित हुआ, व्यथा रहित हुआ, पीडित नहीं हो सका एवं परितापरहित बना-। अपरितापित पद यह कहता है कि वज्र से यदि पीडित नहीं हो सके होंगे तो क्या हुआ- अनल तुल्य वज के सन्निकर्प से परितापित तो हुए ही होंगे-तब यहां उसने कहा कि नहीं-मेरे एक बाल में भी आंच नहीं आई। 'इहमागए' और यहां मैं सुरक्षित रूप से आगया 'इह समोस' अच्छी तरह से आपहुँचा, 'इह संपत्ते' रास्ते में भी और कोई वाधा का सामना 'वज्जं निसि?' तेणे तेनु ५०० ३.यु. ५ मडावा मापाननी कृपाथा भार पास पy qiz। न थये'देवाणुप्पिया!' हेवानुप्रिया! समणस्स भगवओ महावीरस्स भदेणं भवउ जस्स पभावेणं अकिटे अन्यहिए अपरिताविए म्हि' જે મહાવીર ભગવાનના પ્રભાવથી હું અકિલષ્ટ (કલેશ રહિત, અવ્યથિત, અને અન્ય परितापित (पी। रहित) सतम 'इहमागए , महा मान गयो छु, 'इह समोसढे' सुरक्षित शते म मावी २४ा छु, 'इह संपसे' २२तामा पy is પણ જાતની મુશ્કેલી મને નહી નથી. હું અહીં કુશળક્ષેમપૂર્વક આવી ગયે છું,
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
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