SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 648
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - ५०० · मगीरणे येपामस्मि प्रभावेण, अलियः, यावत्-विहरामि, उसमयामि देवानुभिय ! यावद उत्तरपोरस्त्यं दिग्भागम् भपकामति, यावत्-द्वात्रिंशदधिं नाटयविधिम् उपदर्शयति-यामेव दिशं प्रादुर्भूतस्तामेवदिशं प्रतिगतः, एवं खलु गौतम ! चमरेग अमरेन्द्रेण अमुरराजेन सा दिव्या देवदिः यावत्-लब्धा, भाप्ता, अभिसमन्वागताच स्थितिः सागरोपमम् , महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति यावत् अन्तं फरिप्यति ॥ मू० १२॥ परिभ्रष्ट करने का विचार किया था (जाव तं भई णं भवतु देवाणुप्पियाणं) यावत् हे देवानुप्रिय ! आप का भला होवे (जस्सम्हि पभावेणं अकिडे जाव विहरामि) आप के ही प्रभाव से मैं सुरक्षित अक्लिष्ट पना हुआ यावत् विचर रहा हूं (तं खामेमि णं देवाणुप्पिया! जाव उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अवक्कमह) अतः हे देवानुप्रिय ! में आप से क्षमा मांगता है। यावत् इस प्रकार कहकर वह ईशानकोण में चला गया (जाच बत्तीसइविहं नट्टविहिं उपदंसेइ) यावत् उसने घत्तीस (३२) प्रकार का नाटक दिखाया। दिखाकर (जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए) फिर वह जिस दिशा से आया था उसी दिशा तरफ चला गया। (एवं खलु गोयमा! चमरेणं असुरिंदेणं असुररण्णा सा दिव्या देविडूढी जाव लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया) इस प्रकार से हे गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर ने वह दिव्य देवद्धि यावत् लब्ध की, प्राप्त की और उसका उपभोग करता है। (ठिई सागरोवमं महाविदेहे वासे सिज्झिहिई, जाव अंतं काहिह) अपमानित ४२वाना पियार या त. (जाव तं भद्दे णं भवतु देवाणुप्पियाणं) वानुप्रिय ! मापर्नु भयामा. (जस्स म्हि पभावेणं अकिटे जाव विहरामि) આપના પ્રભાવથી જ હું અકિલષ્ટ, અવ્યથિત અને સુરક્ષિત રહી શકો છું. (तं खामेमि णं देवाणुप्पिया ! जाव उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवकमइ) તે હે દેવાનુપ્રિય ! હું આપની ક્ષમા માગું છું. આ પ્રમાણે કહીને તે ઈશાનકેણમાં यात्यो भयो. (जाव बत्तीसइविहं नट्टविहिं उवदंसेइ) तो मत्रीस २i its पाया. त्यार ह (जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए)२ दिशामाया ते भाव्या तो यास्यो गयो. (एवं खलु गोयमा ! चमरे णं अमुरिंदेणं असुररायणा सा दिबां देविडूढी जाव लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया) गीतम! આ રીતે અસરે અસરરાજ ચમરે તે દિવ્ય દેવદ્ધિ આદિ પ્રાપ્ત કર્યા છે અને તેને चाहाना Syanने पात्र मनाया छ. (ठिई सागरोवर्म.महाविदेहे वासे सिम्बिई
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy