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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श. ३ उ. २ सु. ७ चमरेन्द्रस्योत्पातक्रिपानिरूपणम् ४२३ दक्षिणहस्तप्रदेशिक्रया दक्षिणकर तर्जन्या 'अंगुष्ठणहेण य वि'दक्षिणहस्ताद्गुष्टन खेन चापि 'तिरिच्छमुहं' तिर्यगूमुखम् वक्रमुखम् 'विडंबे' विडम्बयति - विडम्बना विषयी करोति 'महया महया' महता महता 'सदेणं' शब्देन अत्युच्चस्वरेण 'कलकलर वेणं' कलकलरवं कोलाहलशब्द' 'करेड' करोति 'एगे' एकः एकाकी बहुपरिवारसत्वेऽपि विवक्षितसहायाभावात्, अतएवाह - 'अबीए' अद्वितीयः द्वितीयरहितः अपरस्याकस्याप्यभावाद, 'फलिहरयणमायाय' परिघरत्नमादाय 'उडूं' ऊर्ध्वम्- 'वेहायसं ' विहायसि आकाशे 'उप्पइए' उत्पतितः ऊर्ध्वगतः 'खोभंते चेत्र ' क्षोभयन् चैव विक्षोभमुत्पादयन् चैत्र ‘अहोलोअं' अधोलोकम्, 'कंपेमाणे च मेइणीयलं' कम्पयंश्च मेदिनीतलम् पृथिनीतलम् 'आकडूंतेच' आकर्षयन्निव आकृष्टं कुर्वन्निव 'तिरियन्कोअं' हाथकी तर्जना से और 'अंगुणहेण य वि' दाहिने हाथ के अंगुठा के नख से 'तिरिच्छमुहं विडंबेह' उसने अपना तिरछामुख कर उसे विडम्बना का विषय बनाया-अर्थात् क्रोध की स्थिति में ऐसा होता है कि मुँह मरोड़ लोग दाहिने हाथ के अंगुष्ट को ढोडीपर और तर्जनी अंगुली को ऊपर के होठ पर रखलेते हैं ऐसा ही इसने किया 'महया महया सदेणं कलकलरवेणं करेइ' बड़े जोर २ से शब्दों का उच्चारण करते हुए इसने बहुत भारी कोलाहल किया, एवं 'एगे' अकेला हो 'अवीए' साथ में किसी को भी न लेकर वह स्वयं फलिहरयणमायाय' परिघरत्न शस्त्रको लेकर 'उड्डू वेहायसं' ऊंचे आकाशमें 'उप्पइए' उड़ा, उड़ते समय उसने अपनी उड्डानसे 'खाते चेव अहोलोय' अधोलोकको क्षेोभित कर दिया था मेहणीयलं च 6 ८ અંગુઠાના નખ વડે 6 कंपेमाणे' मेदनीतलको कंपा दिया था ' आतेव तिरियलोयं ' 'तिरिच्छमुदं विडंबे ' तेना तिरछा रेसा भु વિડંબણા કરી. જ્યારે માણસને ક્રેપ ચડે છે ત્યારે તે માઢુ મરડીને જમણા હાથના અંગુઠા હડપચી પર અને તર્જનીને ઉપરના હાઠ પર રાખે છે. ચમરે પણ ४. 'महया महया सदेणं कलकलरवेणं करेइ' ने लेर रथी भूभ मराडा पाडीने ते लारे असाइस भयावी भूम्यो, भने 'गे' ते मेलोन, 'अबीए' डोधने पाथु साथै सीधा विना, 'फलिहरयणमाया य' परिधरन शस्त्रने धारण ४रीने 'उड वेहायसं उप्पए * આકાશમાં ઊંચે ઉડવા લાગ્યા. ઉડતી વખતે તેની તીવ્ર गतिथा 'स्वोभंते चेत्र अहोलोय' अधोलो मां भणभणार भयी गयो, 'मेइणीयलं च कंपेमाणे' धरातल भी ठयु, ' आक तेत्र तिरियलोयं तिर्यो त ↑
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
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