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________________ ४०८ भगवतीसूत्रे 1 निर्गत्य यौव विगिच्छ कूटः उत्पातपर्वतः तत्रेव उपागच्छति, उपगस्य याबद- द्वितीयवारमपि चैक्रियसमुद्घातेन समवन्ति, समवस्य संख्येयानि योजनानि यावत् - उत्तर वैक्रियरूपं विर्कुवति, तया उत्कृष्टया योत्यमेव पृथिवी शिलापट्टकः, यत्रेव मम अन्तिस्तेनैव उपागच्छति, मांत्रिकृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणां करोति यावत्-नमस्थित्वा एवम् - अवादीत् - इच्छामि भगवन् ! ( चमरचंचाए रायहाणीए मज्झं मज्झेणं णिग्गच्छ) चमरचंचा राजधानीके ठीक पीचों बीच से होकर निकला ( णिग्गच्छित्ता) और निकल कर ( जेणेव तिगिच्छकूडे उबवाय पञ्चए तेणेव उवागच्छह) जहां ति गिच्छकूट नामका उपपात पर्वत था वहां पर गया (उवागच्छित्ता ) वहां जाकर (जाव दोघंपि वेउव्वियसमुग्धाएणं समोहणइ ) उसने यावत् दुवारा भी चैक्रिय समुद्घात से अपनी आत्माके प्रदेशोंको मूल शरीर छोडे विना बाहर निकला ( संखेज्जाएं जोयणाई जाब उत्तरविउव्विरुवं विकुव्वह) और बाहर निकाल कर वह संख्यात योजन तक अपने उत्तर वैक्रियरूप से युक्त हुआ (ताए उकिट्टाए जाव जेणेव पुढचिमिलापट्टए जेणेव ममं अंतिए तेणेव उवागच्छ) उस देवसबंधी उत्कृष्ट गति से यावत् जहां पृथिवी शिलापट्टकथा और जहां पर मैं था. वहां पर वह आयो (उवागच्छित्ता) वहां आकरके उसने (ममतिक्खुत्ती आयाहिणं पयाहिणं करेह ) मेरी तीन बार प्रदक्षिणा णिग्गच्छइ) यभस्य या शन्धानीनी बस्यो बस्यर्भाथी पसार थये। (णिगच्छित्ता) त्यांथी नीडजीने ( जेणेत्र तिमिच्छकूडे उबवायपव्त्रए - तेणेव उवागच्छइ ) તે વિગિચ્છફૂટ નામના ઉપપતપર્યંત પર ગયા કાચ્છિા ત્યાં જઇને ( जात्र दोघं पि वेउव्वियसमुग्धारणं समोहणइ ) तेरे में चार वैठिय સમુદ્ધાત કરીને પેાતાના આત્મ પ્રદેશને મૂળ શરીર છેડયા વિના બહાર કાઢયા. ( संखेज्जाई जोयणाई जान उत्तरविव्विय विकुब्बई ) अने सभ्यात योजन प्रभाशुना उत्तर वैश्यिश्यथा ते युक्त थये। (ताए उकिहाए जात्र जेणेच पुढविसिला पट्टए जेणेव ममं अंतिए तेणेव उवागच्छर) त्यार माह ते हेवी, उष्ट माहि આદિ વિશેષણેાવાળી ગતિથી, જ્યાં પૃથ્વી શિલાપટ્ટક હતું અને તે શિલાક ૫૨ नयां हुं मारभी भिक्षु प्रतिभानुं आराधन उरी रह्यो हुतो, त्यां आया. ( उवागच्छता) भारी भासे भावाने तेथे ( तिक्खुतो आयाहिणं पयाहिणं करे ) भारी ऋणुवार प्रदक्षिणा उरी, (जाव नमसित्ता) भने वहाणा नमस्सार उसने तेब 1 ♪
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
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