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________________ ३८० - - - - - भगवतीमत्रे योऽयं शब्दः चतुरङ्गालव्यवधानेन भलम्बितसुनः सन् 'एगपोग्गलनिविदिट्टी' एकपुद्गलनिविष्टदृष्टिः, एफपुद्गलोपरि स्थापितन पनः अणिमिसणयणे' अनिमिपनयनः पलपातरहितचक्षुः, निनिमेपष्टि रितियावत् 'ईसिं पगारणएणं' ईपत्मागभारनतेन ईपत्-अल्पम् मागभारनतेन-अग्रतो भारावनतेन नम्रीभूतेन 'कारणं कायेन शरीरेण 'अहापणिहिपहि' यथामणिहितः यथाऽवस्थितैः निश्वलैः 'गहिं' गात्रैः शरिरावयवैः 'सन्वें दिएहि सर्वेन्द्रियैः 'गुत्ते, गुमः मन् अहम् 'एगराइभ एकरात्रिकीम् एकरात्रिमा 'महापडिम' महापतिमाम् द्वादशकी भिक्षुमतिमाम् 'उपसंपलेत्ता' उपसंपध स्वीकृत्य विहरामि तिष्ठामि ।।०४॥ मूलम्-तेणं कालेणं, तेणं समएणं, चमरचंचारायहाणी अणिंदा, अपुरोहिआ, यावि होत्था, तएणं से पूरणे बालतवस्सी बहुपडिपुण्णाई दुवालसवासाइं परियागं पाउणित्ता मासिआए संलेहणाए अत्ताणं जसेत्ता सहि भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता कालमासे कालं किच्चा चमरचंचाए रायहाणीए उव'वग्धारियपाणो' यह देशीय शब्द है 'एगपुग्गलनिविदिट्टी' तथा एक पुद्गल के ऊपर दृष्टि को जमा करके 'अणिमिसणयणे' निनिमेष दृष्टि वाले बने हुए मैंने 'ईसिं पब्भारगएणं कारण थोड़ा सा आगे की ओर शरीर को झुकाकर 'अहापणिएहिं गएईि समस्त निश्चल अवयवों से विशिष्ट होकर 'सम्वेदिएहि गुत्त' तथा समस्त इन्द्रियों को उनके व्यापारों से निरोध करके उनसे सुरक्षित होकर 'एगराइयं महापडिमं' एकरात्रि प्रमाणवाली १२वीं भिक्षुप्रतिमा को उवसंपज्जे-. ताणं विहरामि' धारण किया ॥ सू० ४ ॥ पान मे भीलनी पासे २२मान (वग्धारियपाणो) भन्ने हाय kai भान (एगपुग्गलनिविदिट्ठी अणिमिसणयणे) अनिमेष नारे मे पनी तर निटि भी। (ईसिपब्भारगएणं कारणे) शरीरने सो मानी मान बत राणीने (अहापणिएहिं गएहिं) समस्त अपयवान निल राभान (सव्वेदिएहि गुत्ते) समस्त छन्द्रियानी प्रवृत्तियो यापी धन-गुप्तेन्द्रिय मजाक (एगराइये महापडिम) शत्रिनी महापाणी १२ भी मिप्रतिभानी (उपसंपज्जेत्ताणं विरामि) भाराधना ४२१॥ भांडी ॥ सू० ४ ॥
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
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